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आज जो कुछ भी दिख रहा है इसके निर्देशक ऋषभदेव है : निर्यापक मुनिपुंगव श्री सुधासागर जी महाराज


सागर में विराजित मुनिश्री सुधासागर जी महाराज ने अपने प्रबोधन में भगवान ऋषभदेव की महिमा का बखान किया है। आइए पढ़िए सागर से राजीव सिंघई मोनू की यह खबर…


सागर। प्रत्यक्ष जब संदेह की कोटि में आ जाता है तब सन्दर्भ की बहुत बड़ी प्रामाणिकता होती है। जब संदर्भ की जरूरत पड़ती है तो हमें वह संदर्भ किसी प्रामाणिक व्यक्ति से लेने की जरूरत पड़ जाती है। वर्तमान में हम प्रत्यक्ष से बहुत ज्यादा कन्फ्यूज है, हमारे पास जो कुछ भी प्रत्यक्ष है उस पर हम एक मत नही हैं, प्रत्यक्ष हमें भविष्य में अंधकार में दिख रहा है, प्रत्यक्ष हमें मायावी, लुभावना, बनावटी दिख रहा है, प्रत्यक्ष की हमें कुछ अच्छी नियत नहीं दिख रही है, इसलिए जब कोई हमारा लिए कोई बात कहता है तो हमें सन्दर्भ की जरूरत पड़ जाती है, आप जो कुछ भी कह रहे हैं इन सब का रहस्य क्या है?

आज हम जिस संसार में हम बैठे हैं यहां जो कुछ भी प्रत्यक्ष है, सब इन्द्रिय प्रत्यक्ष है और इन्द्रिय प्रत्यक्ष जो होता है वह एक भय पैदा करता है कि मन व इन्द्रियाँ धोखा खा सकती है। सीप को चाँदी व चाँदी को सीप देख सकती है। सुनाया कुछ गया था और कानों ने कुछ और सुन लिया, हम बोलना कुछ और चाहते थे लेकिन मुंह से कुछ और निकल जाता है। हम जाना कहीं चाहते हैं लेकिन पहुंच कहीं और जाते हैं।

इन विकल्पों के कारण दर्शन की परिभाषा बदल दी गयी, वो कानों से भी हो सकता है जिसे अचक्षु दर्शन कहते हैं, कान भी देखता है। जब जब जिसने इन्द्रिय और मन पर विश्वास किया, वे ठोकर खाते पाये गए, इसलिए जब से संसार है तब से मनीषी लोगों ने दर्शन की परिभाषा बदल दी और दर्शन शब्द का दूसरा नाम निकाल दिया श्रद्धा और जब श्रद्धा अर्थ किया तो विसंवाद का विषय बना तो श्रद्धाओ ने नाना रूप ले लिया। किसी को किसी के ऊपर श्रद्धान है, तो किसी को किसी के ऊपर, श्रद्धा ने लाखों रूप ले लिए।

हमारी श्रद्धा इतनी अप्रामाणिकता की कोटि में आ गई कि इसी श्रद्धा ने हमें मिथ्यादृष्टि बना दिया। तब फिर संदर्भ की जरूरत पड़ी कि तुम्हारी श्रद्धा कैसी होना चाहिए। जब संदर्भ की बात आई तो हर व्यक्ति संदर्भ था और है और जब संदर्भ की जब व्यवस्था बनती है तो परंपरा आ जाती है और जब परंपराएं बनती हैं तो सबकी अपनी परंपराएं हैं, एक बालक ने अपने पिताजी का संदर्भ दिया- मेरे पिताजी कहा करते थे।

हर व्यक्ति अपनी परंपरा को सही मानने लगा, हमारी परंपरा से जो संदर्भ आया है वही सही है, ये हमारी परम्परा है। प्रत्यक्ष देखे हुए पदार्थ से व्यक्ति को मोड़ा जा सकता है, प्रत्यक्ष में की हुई भूल को सुधारा जा सकता है लेकिन परंपरागत जो भूल आ जाती है उसको सुधारना बहुत मुश्किल होता है। परंपरागत कोई भूल सुधारना नहीं चाहता, परंपरा है कि हमारे यहां त्यौहार को बकरा काटा जाता है, हाथे लगाए जाते है, कोई नही सुधार सकता। तब इस बात की जरूरत पड़ी कि परंपरा किसकी मानी जाए, संदर्भ किसका मान जाए उसकी प्रामाणिकता होना चाहिए।

प्रामाणिक व्यक्तियों को खोजा गया, उन्हें सुरक्षित किया गया, उन प्रामाणिक व्यक्तियो का स्वरूप निश्चित किया गया कि कौन व्यक्ति है उसका स्वरूप क्या हो, जिसकी परम्परा प्रामाणिक हो, उसमे भी अनेक मतभेद बने, तब पूज्य विद्यानन्दी ने श्लोक वार्तिक में कहा परम्परा किसकी मानी जाए, उसका स्वरूप निर्धारित होना चाहिए और उस स्वरूप में जो सन्दर्भ देगा वही प्रामाणिकता की कोटि में आएगा। आज भी शोधकार्य में कोई भी बात कहता है तो सबसे पहले संदर्भ यदि दिया है तो प्रामाणिक है, संदर्भ नहीं दिया तो वह बात व्यक्तिगत समझ कर छोड़ दी जाती है।

वक्ता एक साउंड है उसमे आवाज़ किसकी आ रही है, श्रोता कहता है मुझे तो जिनवाणी की आवाज से मतलब है, गौण कर दिया वक्ता को। किसकी आवाज है, मुनिराज की, गुरु की, ये तो साउंड है, आवाज तो जिनेन्द्र भगवान की है, वाणी जिनेन्द्र भगवान की आ रही है। क्यों पहले के आचार्य अपने आप को रचयिता नहीं लिखते थे, वह कहते थे कि मेरी वाणी प्रामाणिक है ही नहीं, मैं तो जिनेंद्र भगवान की वाणी लिख रहा हूँ, इसलिए वह शास्त्र भी जिनवाणी है, भली लिपिकार कुन्दकुन्द स्वामी है। तो प्रामाणिकता का स्वरूप जब सामने आया तब प्रामाणिक व्यक्तियों को खोज कर सुरक्षित करना पड़ा, उनको हृदय में रखना पड़ा, उनकी भक्ति करनी पड़ी, उनको अनेक रूपों में सुरक्षित किया।

आज ऋषभदेव के उपकार देखते ही संसार में इतना बड़ा उपकारी कोई नहीं होगा, आज जो कुछ भी दिख रहा है इसके निर्देशक ऋषभदेव है, आज व्यापार कर रहे हो सभी व्यापार उनकी देन है, आज मकान बना रहे हैं उनकी देन है, विमान बना रहे हो उनकी दिन है सूत्र तो सब उन्ही ने दिए हैं। कपड़े पहने हो उन्ही की दिन है। कायदे से पूछा जाए तो आज विद्यालय के अंदर सरस्वती के स्थान पर ऋषभदेव की आराधना होना चाहिए, ऋषभदेव का फोटो होना चाहिए था क्योंकि शिक्षा को सुरक्षित किसने किया ऋषभदेव ने। आज हर किसान के घर मे ऋषभदेव का चित्र होना चाहिए, खेती किसने सिखाई है, हर व्यापारी के घर में, व्यापार किसने सिखाया, हर कुमार के घर में, शिल्प किसने सिखाया ऋषभदेव ने। दुनिया का एक भी घर, एक भी क्षण ऐसा नहीं बचेगा जिस घर व जिस क्षण में तुम ऋषभदेव के उपकार के बिना जी सकते हो।

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