आज उत्तम आंकिंचन का दिन है और यह धर्म हमें यही सिखाता है कौन हु, कहा से आया हु, कहा जाना है और कैसे जाना है यह विचार करने का समय आ गया है आज क्योंकि मन की कुटिलता से हमारे अंत कर्मो का बंध होता है हम उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म को नहीं जान पाते अगर जिस दिन हम अपने जीवन मैं ब्रह्मचर्य को जान लेगे और अपनी मन और पंच इन्द्रियो पर नियंत्रण कर अपनी आत्मा मे लगेगे तभी हमारा कल्याण निश्चित है बरना हम पतन की ओर अग्रसर हो रहे है पढ़िए बाल ब्रह्मचारी झिलमिल दीदी का विशेष आलेख
हे भव्य आत्मा आज सम्पूर्ण रूप से अपने को जानने का समय आ चूका है की मैं कौन हु, कहा से आया हु, कहा जाना है और कैसे जाना है यह विचार करने का समय आ गया है आज क्योंकि मन की कुटिलता से हमारे अंत कर्मो का बंध होता है हम उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म को नहीं जान पाते अगर जिस दिन हम अपने जीवन मैं ब्रह्मचर्य को जान लेगे और अपनी मन और पंच इन्द्रियो पर नियंत्रण कर अपनी आत्मा मे लगेगे तभी हमारा कल्याण निश्चित है बरना हम पतन की ओर अग्रसर हो रहे है पर आज के संसार की बिडमना है की सभी लड़के लड़किया ज़ब एक साथ कॉलीज मैं पढ़ते है तो ना भाई समझ आता है और ना दोस्त।
सभी ऐसे घूमते फिरते है और अपने ब्रह्मचर्य मैं दोष लगाते है। और ऐसा करने से हमारे घर वाले कुछ भी नहीं कहते और उस मैं मर्यादा से बहक जाते और ना चाहते हुये लड़के लड़किया अपने शील व्रत को तोड़ देते है। और फिर ना जाने कितने कर्मो का बंध करते है ब्रह्मचर्य मात्र काम से दूर नहीं अपितु अंतः करण को विकार मुक्त कर निर्मल कर लेने की एक स्थिति है। चित को साध लेने की एक दशा है स्थित प्रज्ञ हो जाने की एक अवस्था है। ब्रह्म के मार्ग का अनुसरण करना है। सच तो ये है की ब्रह्मचर्य तो इस आस्तित्व का अनुसरण है। हे आत्मान यह भोग विलास तेरे नहीं है। तू तो एक शुद्ध चैतन्य आत्मा है। गैर संग रिश्तो नातो मे व्यभिचार जन्म ले रहा है। माता बहिन के रिश्ते टूट रहे है और अधम सड़ ग़ल कर मरने की नियति कामरोगी की निश्चित है। अंत भला चाहो उत्तम गति ब्रह्मचर्य आवश्यक है। यह ब्रह्म स्वरूप कही आत्मएं इसमें चर्या ब्रह्मचर्य कहा गुरुकुल मे वास कर रहे नित ही वह भी है ब्रह्मचर्य दुःख सब नारी को माता भगिनी पुत्रोंवत समझें।
पुरुष सभी महिलाएं पुरषों को भाई पिता सदर्श समझें नित ही आज विश्य मे ब्रह्मचर्य की सबसे अधिक जरुरत है। धारा सभ्यता और संस्कृति दुखी पतित और शोषित है। आज की पीढ़ी मौज मे मर्यादा भूल बैठी है देह वासना, कामुकता मे शील को खेल बना बैठी है पर हे भव्य आत्मा यह दस धर्म हमें यही सीखाते है की बेटा अपनी अंतर आत्मा घर मे लोट आ धर्म का धारण करने दसलक्षण तेरी मुक्ति के रास्ते है। बेटा उनमे से दसवा ब्रह्मचर्य है। कामसेवन का मन वचन तथा काया से परित्याग करके अपनी आत्मा मे रमण ही उत्तम ब्रह्मचर्य है। देखो उस अंगसारा को ज़ब उनके पिता एक मुनिराज से आष्टानिका महापर्व मे 8 दिन का ब्रह्मचर्य व्रत ले रहे थे तब गुरु ने उनसे कहा बेटा तुम भी ब्रह्मचर्य ले लो तो उन्होंने कहा दे दो और वह घर आ गई। ज़ब वह बड़ी हुई तब उनके लिये शादी के लिये वर देखा तब उन्होंने कहा पिताजी मेरा तो ब्रह्मचर्य व्रत है और ब्रह्मचर्य बाला व्यक्ति शादी नहीं कर सकता।
तब उन्होंने कहा वो नियम तो आठ दिन का था तब उन्होंने कहा पिताजी ना गुरु जी ने ऐसा कुछ कहा और ना मेने तो अब तो वो आजीवन हुआ ना। तब अंगसारा की ब्रह्मचर्य की बहुत परीक्षा हुई पर वह कभी अपने शील से नहीं डिगी और माता जी बन कर स्त्री पर्याय का छेदन किया इसलिए हे भव्य आत्मा अपनी अंतर आत्मा मे रमण कर के इस विषय भोगो का त्याग करके अपनी आत्मा के विषय को जाने का प्रयास कर और अपने जीवन को उज्जवल बना और अपनी आत्मा को अंतसुख मे ले जा।
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