आज उत्तम आंकिंचन का दिन है और यह धर्म हमें यही सिखाता है की हमारे जीवन मे किंचित मात्र भी कुछ भी मेरा नहीं है इस सांसर मे अगर मेरा कुछ है तो सिर्फ मेरी भगवान आत्मा ही मेरी सब कुछ है बाकी प्रदार्थ सिर्फ संसार मे भ्रमण कराने बाले है, इसलिए हे भव्य आत्मा तुझे आज अपनी आत्मा को समझना है। पढ़िए बाल ब्रह्मचारी झिलमिल दीदी का विशेष आलेख
हे भव्य आत्मा आज उत्तम आंकिंचन का दिन है और यह धर्म हमें यही सिखाता है की हमारे जीवन मे किंचित मात्र भी कुछ भी मेरा नहीं है इस सांसर मे अगर मेरा कुछ है। तो सिर्फ मेरी भगवान आत्मा ही मेरी सब कुछ है बाकी प्रदार्थ सिर्फ संसार मे भ्रमण कराने बाले है, इसलिए हे भव्य आत्मा तुझे आज अपनी आत्मा को समझना है। अभी तक हमने अपने जीवन को व्यर्थ ही गवाया है हमारी माँ जिनवाणी माँ कितना समझती है की बेटा तू वीर की संतान है। तू अपना वीर पना दिखा और और जो पदवी वीर प्रभु ने पाई है, वो मुझे भी पानी है ऐसा संकल्प करो जीवन मे तब तो ठीक है वरना घूमते रहो।
इस दुःख रूपी दलदल संसार मे आचार्य कहते है की, हे भव्य आत्मा तुझे अपने स्वरूप का अवलोकन तो करना होगा तभी तेरा कल्याण निश्चित है और इस आत्मा का सरूप संग्रह करना नहीं बल्कि इस आत्मा का स्वरूप किनचित्र मात्र भी परिग्रह नहीं रखना पर हम तो परिग्रह मे ही आनन्द बनाते है। वही हमें अच्छा लगता है। एक मुनिराज एक गांव मे गये और वो बहुत तपस्वी थे और अपनी आत्मा की हर पल ध्यान करते थे। जो भी उनका आशीर्वाद लेता और वह आशीर्वाद पाकर धन्य हो जाता। ज़ब यह बात दूसरे गांव मे फैलाने लगी और जब दूसरे गांव से एक व्यक्ति आये और महाराज से बोला महाराज मुझे भी आशीर्वाद दो।
तो महाराज ने कहा जाओ पहले मनुष्य बन कर आओ फिर आशिर्बाद दूंगा। तो व्यक्ति बोला महाराज आप ऐसा क्या बोल रहे है मे मनुष्य ही हु। तब महाराज ने बताया की तुम बहुत परिग्रह का संग्रह करते हो जबकि एक चींटी संग्रह करती है पर वो चींटी भी उतना ही संग्रह करती है जीतना उसे आवश्यकता होती है। पर तुम तो एक चार इंदिये जीव से भी ज़्यदा बेकार हो इसलिए तुम पहले अपने अन्दर परिग्रह को कम करो तभी तुम्हरा कल्याण होगा तुम नहीं जानते की बेटा इस सांसर मे सर्फ़ अपनी आत्मा से परिग्रह करो। उस मे शुभ भाव का परिग्रह करो।
सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान, सम्यक चरित्र का परिग्रह करो। क्योंकि यही तुम्हरा स्वरूप है। हे भव्य तुम कितने पुण्य शाली हो की तुमको पुरुष पर्याय मिली और निर्गन्थ मुनिराजो का सानिध्य मिला है इसलिए तुम उस्तकष्ट पर्याय को धारण कर मुनिराज बन क्योंकि एक भी वस्त्र परिग्रह का कारण है।
कहते है ना चाहे लगोटी के दुःख भाले इसलिए तुम परिग्रह तो त्याग कर अपने जीवन मे अपनी आत्मा के स्वरूप का अवलोकन करते हुये अपने जीवन मे आकिंचन को धारण करें और अपने जीवन को चमकाये यही. भेद ज्ञान के बल से सर्वत्र ममत्व का त्याग चैतन्य भावना मे रत हुये मुनिराज बिना संकोच अन्य मुनिराजो को भी शास्त्र के गहन रहस्ययो का ज्ञान प्रदान करते है।
सिंह आकर शरीर को खा जाये तो भी देह प्रति ममत्व नहीं करते। भरत चक्रवती जैसे भी क्षणमात्र मे छ खंड का वैभव छोड़कर इसी आकिंचन भावनारूप मे परिणामित हुये थे। आकिंचन धर्म आत्मा का उस दशा का नाम है जहाँ पर बाहरी सब छूट जाता है किन्तु आतंरिक संकल्प विकल्पों की परिणाती को भी विश्राम मिल जाता है। इसलिये पने जीवन मे आकिंचन धर्म को लाओ।
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