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दोहों का रहस्य -51 दया रहित व्यक्ति कठोर, स्वार्थी और क्रूर बन जाता है: सच्चा ज्ञान वही है, जो मनुष्य को दयालु और संवेदनशील बनाए


दोहे भारतीय साहित्य की एक महत्वपूर्ण विधा हैं, जो संक्षिप्त और सटीक रूप में गहरी बातें कहने के लिए प्रसिद्ध हैं। दोहे में केवल दो पंक्तियां होती हैं, लेकिन इन पंक्तियों में निहित अर्थ और संदेश अत्यंत गहरे होते हैं। एक दोहा छोटा सा होता है, लेकिन उसमें जीवन की बड़ी-बड़ी बातें समाहित होती हैं। यह संक्षिप्तता के साथ गहरे विचारों को व्यक्त करने का एक अद्भुत तरीका है। दोहों का रहस्य कॉलम की 51वीं कड़ी में पढ़ें मंजू अजमेरा का लेख…


“दया भाव हृदय नहीं, ज्ञान थके बेहद।

ते नर नरक ही जाएंगे, सुनि सुनि साखी शब्द॥”


कबीर दास जी यहां “दया” को एक आवश्यक गुण के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। दया केवल एक भावना नहीं, बल्कि हृदय की कोमलता और दूसरों के प्रति संवेदनशीलता है। यदि किसी व्यक्ति के अंदर दया नहीं है, तो चाहे उसके पास कितना भी ज्ञान हो, वह व्यर्थ है।

दया रहित व्यक्ति कठोर, स्वार्थी और क्रूर बन जाता है। उसकी सोच केवल अपने स्वार्थ तक सीमित रहती है, और वह दूसरों की पीड़ा को नहीं समझ सकता। ऐसा व्यक्ति अपने कर्मों के कारण अंततः स्वयं ही दुखों में गिरता है।

“ज्ञान थके बेहद”—इसका अर्थ यह है कि यदि ज्ञान केवल बुद्धि तक सीमित रह जाए और उसे जीवन में न उतारा जाए, तो वह व्यर्थ हो जाता है। बहुत से लोग सत्संग, प्रवचन और धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन तो करते हैं, लेकिन जब असली परीक्षा की घड़ी आती है, तब वे करुणा और धर्म के मार्ग से हट जाते हैं।

आध्यात्मिकता का वास्तविक उद्देश्य आत्मा का उत्थान और प्रेमभाव से ओतप्रोत जीवन जीना है। यदि कोई केवल “सुनि सुनि साखी शब्द” यानी सुनी-सुनाई बातें दोहराता है, लेकिन वह अपने जीवन में उस ज्ञान को नहीं अपनाता, तो उसका ज्ञान शुष्क और निरर्थक हो जाता है।

इस दोहे का गहन अर्थ यह है कि सच्चा ज्ञान वही है, जो मनुष्य को दयालु और संवेदनशील बनाए। यदि कोई व्यक्ति केवल सुनी-सुनाई बातों पर चलता है और अपने हृदय में दया का स्थान नहीं देता, तो उसका जीवन निरर्थक हो जाता है।

ज्ञान को केवल संचित करना पर्याप्त नहीं; उसे आचरण में उतारना ही वास्तविक आत्मिक उन्नति की ओर ले जाता है। दयाहीन व्यक्ति चाहे जितना भी धार्मिक या ज्ञानी होने का दिखावा करे, उसका अंततः पतन होता है।

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