जैनधर्म के प्रवर्तक, तीर्थंकर ऋषभदेव मोक्ष कल्याणक (निर्वाणोत्सव) 10 फरवरी 2021 के अवसर पर प्रासंगिक आलेख :
(वर्तमान में कृषि और किसान की चर्चा सड़क से लेकर संसद और सुप्रीम कोर्ट तक में हो रही है। भगवान ऋषभदेव ने कहा था कि ऋषि बनो या कृषि करो। उनके निर्वाणोत्सव पर पढ़ें प्रासंगिक आलेख-संपादक)
भगवान ऋषभदेव जैनधर्म के प्रवर्तक और प्रथम तीर्थंकर हैं। उनका जन्म चैत्र कृष्ण नवमी को अयोध्या में हुआ था, वहीं माघ कृष्ण चतुर्दशी को इनका निर्वाण कैलाश पर्वत पर हुआ। इन्हें आदिनाथ, पुरुदेव, वृषभदेव आदि अनेक नामों से भी जाना जाता है। इनके पिता का नाम राजा नाभिराय तथा माता का नाम मरुदेवी था।
वर्तमान में कृषि और किसान की चर्चा सड़क से लेकर संसद और सुप्रीम कोर्ट तक में हो रही है। हमारा देश कृषि प्रधान देश है और यह आज से नहीं भगवान ऋषभदेव के जमाने से है। यह किसान ही तय करता है कि देश में महंगाई बढ़ेगी या घटेगी। हमारे देश की अर्थव्यवस्था कृषि पर ही आधारित है।
ऋषि बनो या कृषि करो का दिया संदेश :
ऋषभदेव ने कहा था कि ऋषि बनो या कृषि करो। ऋषि बनोगे तो आत्म-कल्याण करोगे और कृषि करोगे तो तुम्हारा भी पेट भरेगा और जनता का भी पेट भरेगा। भगवान ऋषभदेव ने ही इस युग के प्रारम्भ में जब कल्पवृक्ष लुप्त होने लगे और मानव के समक्ष जीवन के अस्तित्व का प्रश्न उपस्थित हो गया तब उन्होंने मनुष्य को कर्म करने का उपदेश दिया और यह संदेश दिया कि ऋषि बनो या कृषि करो।
जैन परंपरा व ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार तीर्थंकर ऋषभदेव ने कृषि का सूत्रपात किया। उनके पहले इस देश में लोगों को कृषि कला का ज्ञान नहीं था। ऋषभदेव से कृषि कर्म का उपदेश पाकर के प्रजा की बड़ी समस्या हल हो गई। व्यवस्थित कृषि का ज्ञान पाकर वे सुखी एवं समृद्ध हुए। इसी के कारण ऋषभदेव को अपने युग का प्रजापालक और लोकप्रिय शासक माना जाता है। उल्लेखनीय तथ्य यह है कि तीर्थंकर ऋषभदेव का पहचान चिन्ह वृषभ यानी बैल है।
पुरातत्वज्ञ वृषभ लांछन से ऋषभदेव की मूर्तियों की पहचान करते हैं। उस काल से आज तक कृषि का मूलाधार वृषभ (बैल) ही है।ऋषभदेव का एक नाम वृषभदेव भी है।
कृषि कर्म का उपदेश महत्वपूर्ण था, क्योंकि आगे की संपूर्ण व्यवस्था उसी पर आधारित थी। भूखा व्यक्ति कौन-सा पाप नहीं करता? यदि उदरपूर्ति न होती तो मनुष्य पशु-पक्षियों का भक्षण करता एवं अंत में मनुष्य-मनुष्य का। फिर कौन बात करता ग्राम एवं समाज व्यवस्था की, संस्कृति संरक्षण की, शिल्पकलाओं एवं लिपि विद्याओं की, व्यापार एवं लोकोपकार की। कृषि का उपदेश देकर सदमार्ग उन्होंने प्रशस्त किया।

आंतरिक चेतना को जगाया :
भगवान ऋषभदेव का संदेश था कि मनुष्य के अस्तित्व के लिए रोटी, कपड़ा और मकान जैसी चीजें आवश्यक हैं, किंतु यह अधूरी संपन्नता है। उसमें अहिंसा, सत्य, संयम, समता, साधना और तप के आध्यात्मिक मूल्यों की आंतरिक संपन्नता भी जुड़नी चाहिए। प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव ने भारतीय संस्कृति को बहुत कुछ दिया है। उन्होंने जहां समाज को विकास का मार्ग सुझाया, वहीं अहिंसा, संयम तथा तप के उपदेश द्वारा समाज की आंतरिक चेतना को भी जगाया।
ऋषभदेव ने अनेकानेक शिल्पों की अवधारणा की। कृषि और उद्योग में अद्भुत सामंजस्य स्थापित किया कि धरती पर स्वर्ग उतर आया। कर्मयोग की वह रसधारा बही कि उजड़ते और वीरान होते जन -जीवन में सब ओर नव बंसत खिल उठा। जनता ने अपना स्वामी उन्हेें माना और धीरे-धीरे बदलते हुए समय के अनुसार वर्ण व्यवस्था, दण्ड व्यवस्था, विवाह आदि सामाजिक व्यवस्था का निर्माण हुआ। उन्होंने समाज को उनके कर्तव्यों की ओर उन्मुख किया।
आदर्श दण्ड संहिता के निर्माता :
प्रशासनिक कार्य में इस भारत भूमि को उन्होंने राज्य, नगर, खेत, कर्वट, मटम्ब, द्रोण मुख तथा संवाहन में विभाजित कर सुयोग्य प्रशासनिक, न्यायिक अधिकारों से युक्त राजा, माण्डलिक, किलेदार, नगर प्रमुख आदि के सुर्पुद किया। आपने आदर्श दण्ड संहिता का भी प्रावधान कुशलता पूर्वक किया।
ज्येष्ठ पुत्र भरत के नाम से इस देश का नामकरण ‘भारतवर्ष’ :
पौराणिक, साहित्यिक एवं पुरातात्विक साक्ष्यों के सप्रमाण उल्लेख से यह सिद्ध किया है कि इन्हीं प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र भरत के नाम से इस देश का नामकरण ‘भारतवर्ष’ इन्हीं की प्रसिद्धि के कारण विख्यात हुआ। इतना ही नहीं, अपितु कुछ विद्वान भी संभवतः इस तथ्य से अपरिचित होंगे कि आर्यखण्ड रूप इस भारतवर्ष का एक प्राचीन नाम नाभिखण्ड ‘अजनाभवर्ष’ भी इन्हीं ऋषभदेव के पिता ‘नाभिराय’ के नाम से प्रसिद्ध था।
अतः यथाशीघ्र हमारे देश से इंडिया हटाकर भारतवर्ष नामकरण होना चाहिए क्योंकि यही नाम है जो हमें ब्रिटिश शासकों की दासता भरी यादों से मुक्त करता है और गौरवपूर्ण इतिहास का स्मरण दिलाता है।

भारतीय संस्कृति के आद्य प्रणेता :
तीर्थंकर ऋषभदेव भारतीय संस्कृति के आद्य प्रणेता माने जाते हैं। वेदों, उपनिषदों और पुराणों में समागत उनके उल्लेख यह कहने के लिए पर्याप्त हैं कि ऐसे महापुरूष थे। जिन्होंने असि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य एवं शिल्प-इन षड् विद्याओं का उपदेश युग के प्रारम्भ में देकर कर्मभूमि की सामाजिक व्यवस्थाओं का सूत्रपात किया था। किसी भी व्यक्ति और समुदाय के लिए इन प्रकल्पों की शिक्षायें आगे बढ़ाने के लिए अनिवार्य होती हैं।
विश्व के प्राचीनतम लिपिबद्ध धर्म ग्रंथों में से एक वेद में तथा श्रीमद्भागवत इत्यादि में आये भगवान ऋषभदेव के उल्लेख तथा विश्व की लगभग समस्त संस्कृतियों में ऋषभदेव की किसी न किसी रूप में उपस्थिति जैनधर्म की प्राचीनता और भगवान ऋषभदेव की सर्वमान्य स्थिति को व्यक्त करती है।
हड़प्पा एवं मोहनजोदड़ो की खुदाई से प्राप्त मूर्तियों को पुरातत्व विभाग ने ऋषभदेव की मूर्तियां बताया है। भारत के राष्ट्रपति एवं प्रसिद्ध दार्शनिक डॉ राधाकृष्णन ने अपने भारतीय दर्शन के इतिहास में लिखा है कि “जैन परंपरा ऋषभदेव से अपनी उत्पत्ति का कथन करती है जो बहुत सी शताब्दियों के पूर्व हुए हैं।”
महाभारत के अनुशासन पर्व में भी ऋषभदेव का नाम आया है। वैदिक साहित्य में भगवान ऋषभदेव को जैन धर्म का आदि प्रवर्तक माना गया है। डॉ. एन एन बसु ने सिद्ध किया है कि लेखन कला और ब्राह्मी विद्या का आविष्कार ऋषभदेव ने किया था। विभिन्न साक्ष्यों द्वारा यह पुष्टि हो जाती है कि ऋषभदेव भारतीय संस्कृति के प्रथम वरिष्ठ महापुरुष थे। मानवीय गुणों के विकास की सभी सीमाएं ऋषभदेव ने उद्घाटित की।
आज अधिक प्रासंगिक हैं उनकी शिक्षाएं :
तीर्थंकर ऋषभदेव द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत तथा शिक्षाएं आज पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक और उपयोगी हैं तथा भविष्य के विश्व संस्कृति के लिए आधार हैं।
भारतीय संस्कृति के प्रणेता एवं जैनधर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव की जनकल्याणकारी शिक्षा द्वारा प्रतिपादित जीवन-शैली, आज के चुनौती भरे माहौल में उनके सामाजिक एवं राजनीतिक विचारों की प्रासंगिकता है।
आज मानवता के सम्मुख भौतिकवादी चुनौतियों के कारण नाना प्रकार के सामाजिक एवं मानसिक तनाव तथा संकट व्यक्तिगत, सामाजिक एवं भूमण्डल स्तर पर दृष्टिगोचर हो रहे हैं। उनके द्वारा प्रतिपादित ज्ञान-विज्ञान की विभिन्न क्षेत्रों में ऐसी झलकियां मिलती हैं जिन्हें रेखांकित करके हम अपने सामाजिक एवं राजनैतिक जीवन की गुणवत्ता को बढ़ा सकते हैं।
माघ कृष्ण चतुर्दशी को मोक्ष कल्याणक :
जैन समुदाय अपने प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के निर्वाण महोत्सव को बड़े ही धूमधाम से श्रद्धा-भक्ति के साथ मनाता है। इस दिन पूरे देश में उनकी विशेष अभिषेक-शांतिधारा, पूजा-विधान कर उनके चरणों में निर्वाण लाडू समर्पित करते हैं।
-डॉ. सुनील जैन संचय
(लेखक आध्यात्मिक चिंतक और स्तम्भकार हैं)
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