दोहे भारतीय साहित्य की एक महत्वपूर्ण विधा हैं, जो संक्षिप्त और सटीक रूप में गहरी बातें कहने के लिए प्रसिद्ध हैं। दोहे में केवल दो पंक्तियां होती हैं, लेकिन इन पंक्तियों में निहित अर्थ और संदेश अत्यंत गहरे होते हैं। एक दोहा छोटा सा होता है, लेकिन उसमें जीवन की बड़ी-बड़ी बातें समाहित होती हैं। यह संक्षिप्तता के साथ गहरे विचारों को व्यक्त करने का एक अद्भुत तरीका है। दोहों का रहस्य कॉलम की 86वीं कड़ी में पढ़ें मंजू अजमेरा का लेख…
काया काठी काल घुन, जतन जतन सो खाए।
काया वैद्य ईश बस, मर्म न काहू पाए॥
यह दोहा आत्मा और शरीर के संबंध को स्पष्ट रूप से प्रस्तुत करता है। कबीरदास जी ने इस दोहे के माध्यम से यह संदेश दिया है कि शरीर (काया) समय (काल) और विकारों (जैसे रोग, बुढ़ापा, और मृत्यु) के कारण धीरे-धीरे क्षीण होता जाता है, जैसे लकड़ी (काठी) को घुन अंदर से खा जाता है।
लोग इस नाशवान शरीर को बचाने के लिए तरह-तरह के उपाय (जतन) करते हैं—स्वस्थ भोजन, व्यायाम, औषधियां, और वैद्य की सलाह। लेकिन, यह सच है कि कोई भी इसे अनंत काल तक सुरक्षित नहीं रख सकता। शरीर अंततः नष्ट होने वाला है।
असली रहस्य यह है कि यह शरीर परमात्मा (ईश) के अधीन है और उसकी सत्ता में है। न तो कोई इसकी सच्ची पहचान कर सकता है और न ही इसके वास्तविक स्वरूप को समझ सकता है। लोग अपने शरीर, धन, प्रतिष्ठा, और सांसारिक चीजों को सहेजने में लगे रहते हैं, लेकिन ये सभी क्षणिक और नाशवान हैं।
मनुष्य कई प्रयास करता है ताकि वह सुंदर, स्वस्थ, और दीर्घायु बना रहे, लेकिन अंततः कोई भी काल की गति से बच नहीं सकता। अगर व्यक्ति केवल शरीर के सुखों में लिप्त रहेगा और आत्मिक उन्नति की ओर ध्यान नहीं देगा, तो वह व्यर्थ जीवन जीएगा।
सच्चा ज्ञान और महानता बाहरी स्वरूप में नहीं, बल्कि व्यक्ति के आंतरिक गुणों और उसके कर्मों में होती है। कबीरदास जी हमें इस दोहे के माध्यम से गहरी चेतावनी देते हैं कि हम शरीर को बचाने के लिए कितने भी उपाय कर लें, अंततः यह नष्ट हो जाएगा। आत्मा ही शाश्वत है और वह परमात्मा के अधीन है।
इसलिए, हमें केवल शरीर की देखभाल तक सीमित न रहकर, आत्मज्ञान, सत्य, और भक्ति के मार्ग को अपनाना चाहिए। जीवन का असली उद्देश्य आध्यात्मिक उन्नति और ईश्वर का साक्षात्कार करना है, न कि केवल नश्वर देह को संवारने में लगे रहना।
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