श्रवणबेलगोला के समाधिस्थ बड़े स्वामी जी चारूकीर्ति भट्टारक जी को सामाजिक और धार्मिक योगदान के लिए जाना जाता है। उन्होंने समाज में नैतिकता, आध्यात्मिकता और अहिंसा के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उन्होंने अपने जीवन को जैन धर्म के सिद्धांतों के पालन और शिक्षा में समर्पित कर दिया। स्वामी जी ने अपने प्रवचनों के माध्यम से समाज में नैतिकता और अहिंसा के प्रति जागरूकता फैलाने का कार्य किया। उनका जीवन और कार्य न केवल जैन समुदाय के लिए, बल्कि संपूर्ण समाज के लिए प्रेरणादायक है। विभिन्न विद्वानों ने समय-समय पर स्वामी के बारे में बहुत कुछ लिखा है। स्वामी जी की 75वीं जन्मजयंती के उपलक्ष्य में उन सभी आलेखों का प्रकाशन श्रृंखलाबद्ध रूप में श्रीफल जैन न्यूज पर किया जा रहा है। इसकी तीसरी कड़ी में आज पढ़िए मुनि श्री सुधासागर जी महाराज का आलेख….
चारुकीर्ति जी स्वामी श्रवणबेलगोला इस युग के सबसे आदर्श भट्टारक थे। श्रेष्ठ भट्टारक थे। आचार और विचारों में भट्टारकों में सबसे श्रेष्ठ थे। अचार भी उनका श्रेष्ठ था, विचारों में तो वे बहुत-बहुत महान् थे। उनको सत्य की पहचान थी। वे श्रमण संस्कृति के सबसे बड़े सम्पोषक थे। श्रवणबेलगोला को जो आज ऊंचाइयां मिली हैं, वे चारूकीर्ति भट्टारक ने ही दी हैं। सन् 1967 से महामस्तकाभिषेक हो रहे हैं, दक्षिण और उत्तर भारत को एक करने का श्रेय जाता है तो चारूकीर्ति भट्टारक को जाता है। हमारे यहां एक युग था जब उत्तर भारत और दक्षिण भारत दो भागों में बंट चुका था, दोनों के सम्पर्क टूट चुके थे, दोनों अलग थे लेकिन उत्तर भारत और दक्षिण भारत की जैन समाज को एक अखण्ड रूप में स्थापित करने में चारूकीर्ति जी का योगदान रहा है। चारूकीर्ति जी भट्टारक आदर्श भट्टारक थे। गोम्टेश बाहुबली के माध्यम से दक्षिण और उत्तर भारत को एक किया, यह बहुत बड़ा प्रशंसनीय कार्य था। चारूकीर्ति के निदेशन में श्रवणबेलगोला में जो कार्यक्रम हुए, वे बहुत बढ़िया रहे। दूसरी बात जैनधर्म को राजनैतिक स्तर प्रदान कराने में सर्वश्रेष्ठ काम है चारूकीर्ति भट्टारक का। उन्होंने जैन धर्म को राष्ट्रीय संरक्षण दिलवाया।
मेरे पास भी उनके बहुत समाचार आए कि महाराज जी एक बार आप दक्षिण भारत की तरफ आइए। पूज्य गुरु देव (आचार्य श्री विद्यासागरजी) के पास तो भट्टारक स्वयं आए, लेकिन आचार्यश्री तो श्रवणबेलगोला नहीं पहुंच पाए लेकिन भट्टारक जी ने श्रवणबेलगोला में आचार्यश्री के स्वर्ण जयंती पर भारत का सर्वश्रेष्ठ कीर्ति स्तंभ बनवाया। चारूकीर्ति भट्टारक ने वस्तुतः जैनधर्म की, जैन शास्त्रों की और जैन श्रमण संस्कृति की रक्षा की, भले ही परंपरा में नहीं थे लेकिन परंपरा के पहरी थे।
वे विचारों में बहुत निर्मल थे। बताते हैं कि वे चातुर्मास आदि में इधर-उधर नहीं जाते थे। उत्तर भारत से जब भी साधु श्रवणबेलगोला जाते थे तो उन सभी साधुओं के लिए बहुत आदर के साथ सम्मान देते थे। उन्होंने कभी भी किसी का अनादर नहीं किया। उनके जाने से एक बहुत बड़ी क्षति हुई है। श्रमण संस्कृति की रक्षा करने वाला एक पहरी हमारे बीच से चला गया। दिवंगत आत्मा के लिए बहुत-बहुत आशीर्वाद। मेरी भावना है कि इस बार उन्होंने भट्टारक पद निभाया है, अगली बार मुनि पद का निर्वाह करें।
श्रृंखला-1
श्रृंखला-2
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