दोहे भारतीय साहित्य की एक महत्वपूर्ण विधा हैं, जो संक्षिप्त और सटीक रूप में गहरी बातें कहने के लिए प्रसिद्ध हैं। दोहे में केवल दो पंक्तियां होती हैं, लेकिन इन पंक्तियों में निहित अर्थ और संदेश अत्यंत गहरे होते हैं। एक दोहा छोटा सा होता है, लेकिन उसमें जीवन की बड़ी-बड़ी बातें समाहित होती हैं। यह संक्षिप्तता के साथ गहरे विचारों को व्यक्त करने का एक अद्भुत तरीका है। दोहों का रहस्य कॉलम की 75वीं कड़ी में पढ़ें मंजू अजमेरा का लेख…
काला मुंह करूं कर्म का, आदर लावू आग।
लोभ बड़ाई छाड़ी के, रांचू गुरु के राग।।
कबीरदास जी के इस प्रसिद्ध दोहे का अर्थ है कि व्यक्ति को अपनी बुराईयों और पापपूर्ण कर्मों से शुद्ध होना चाहिए, ताकि वह सच्चे आध्यात्मिक मार्ग पर आगे बढ़ सके। कबीरदास जी यह स्पष्ट करते हैं कि जब तक व्यक्ति अपने पापों और गलत कर्मों को सुधारकर त्याग नहीं करता, तब तक वह सच्चे गुरु की कृपा और आत्मज्ञान का पात्र नहीं बन सकता।
यह दोहा हमें सिखाता है कि सांसारिक लोभ, अहंकार, और झूठी प्रतिष्ठा को छोड़कर ही व्यक्ति आध्यात्मिक प्रगति कर सकता है। आत्मशुद्धि और गुरु की भक्ति के लिए आवश्यक है कि हम अपने कर्मों की सच्चाई को स्वीकार करें और उन्हें सुधारें।
कबीरदास जी कहते हैं कि जब व्यक्ति अपने दुष्कर्मों को छोड़कर, लोभ और अहंकार से मुक्त हो जाता है, तो वह गुरु की भक्ति में पूरी तरह रम जाता है। “रांचू” का अर्थ है – पूरी तरह से गुरु के ज्ञान और भक्ति में समर्पित होना। जब कोई व्यक्ति गुरु के ज्ञान में लीन हो जाता है, तो वह सांसारिक मोह-माया से मुक्त हो जाता है और उसे सच्चा आनंद प्राप्त होता है।
गुरु का मार्गदर्शन ही सच्चे ज्ञान और आत्मशुद्धि की कुंजी है। जो व्यक्ति अहंकार और लोभ को त्याग कर गुरु की शिक्षाओं को अपनाता है, वही सच्ची शांति और मोक्ष प्राप्त कर सकता है।
कबीरदास जी इस दोहे के माध्यम से हमें यह सिखाते हैं कि आत्मशुद्धि, गुरु की भक्ति और सच्चे ज्ञान का मार्ग ही आध्यात्मिक उन्नति की ओर जाता है। जब तक हम अपने पापों को छोड़कर गुरु के मार्ग का अनुसरण नहीं करते, तब तक हम सच्चे शांति और मोक्ष की प्राप्ति नहीं कर सकते।
Add Comment