जैन धर्म के चार अनुयोग के माध्यम से हमें जीवन के उच्चतम उद्देश्य की प्राप्ति के लिए आवश्यक सिद्धांतों का ज्ञान मिलता है। ये शास्त्र न केवल हमें जीवन के उद्देश्यों को समझने में मदद करते हैं, बल्कि हमारे आचार और व्यवहार को सुधारने के लिए दिशा भी प्रदान करते हैं। प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग, और द्रव्यानुयोग मिलकर हमें समग्र ज्ञान और मोक्ष की ओर मार्गदर्शन करते हैं। पढ़िए अंतर्मुखी मुनि पूज्य सागर महाराज का यह विशेष आलेख…
ग्रंथ शब्द के अनेक अर्थ होते हैं। तीर्थंकर की वाणी को गणधर देव ग्रहण करते हैं, और उसके बाद श्रमण-श्रावक उस वाणी को एक-दूसरे से मौखिक रूप से साझा करते हैं। जब यह वाणी मौखिक रूप से याद रखना कठिन हो गया, तो इसे लिपिबद्ध किया गया, और वही लिपिबद्ध वाणी “ग्रंथ” कहलाती है। इन ग्रंथों को चार भागों में विभाजित किया गया है: प्रथमानुयोग, चरणानुयोग, द्रव्यानुयोग और करणानुयोग। इन भागों में क्रमशः भगवान आदिनाथ, राम, चक्रवर्ती आदि महापुरुषों की कथाएं, सिद्धांत, लोक विभाग, जीव के आचार-विचार और चेतन-अचेतन का स्वरूप बताया गया है। चलिए, अब इन अनुयोगों के बारे में विस्तार से जानते हैं।
यह ग्रंथ प्राकृत, अपभ्रंश, संस्कृत आदि भाषाओं में उपलब्ध हैं और इनका हिन्दी सहित अन्य भाषाओं में अनुवाद भी किया जा रहा है।
1. प्रथमानुयोग
“प्रथमानुयोग मर्थाख्यानंग चरितं पुराणमपि पुण्यम्। बोधिसमाधि निधानं बोधित बोधः समीचीन।”
इसका अर्थ है कि इस अनुयोग में तिरेसठ शलाका पुरुषों का वर्णन किया गया है, जिनमें 169 महापुरुषों के आदर्श जीवन और पुण्य-पाप के फल का विवरण है। यह बोधि (रत्नत्रय) और समाधि (समाधिमरण का खजाना) है, जिसमें कथाओं के माध्यम से कठिन विषयों को सरलता से प्रस्तुत किया गया है। इससे सभी लोग, चाहे वे छोटे हों या बड़े, समझ सकते हैं।
प्रथमानुयोग के प्रमुख ग्रंथ हैं: महापुराण, आदिपुराण, हरिवंशपुराण, पद्मपुराण, श्रेणिकचरित्र, उत्तरपुराण आदि।
2. करणानुयोग
“लोका लोक विभक्तेर्युगपरिवृत्तेश्चतुर्गतीनां च। आदर्शमिव तथा मतिरवैति करणानुयोगं च॥”
इसका अर्थ है कि यह अनुयोग लोक-अलोक के विभाग, कल्पकालों के परिवर्तन और चारों गतियों के विषय में दर्पण के समान होता है।
करणानुयोग के प्रमुख ग्रंथ हैं: तिलोयपण्णति, त्रिलोकसार, लोकविभाग, जम्बूदीवपण्णत्ति आदि।
3. चरणानुयोग
“गृहमेघ्यनगाराणां चरित्रोत्पत्तिवृद्धिरक्षांगम्। चरणानुयोगसमयंग सम्यग्ज्ञानं विजानाति॥”
इसका अर्थ है कि इस अनुयोग में श्रावक और मुनियों के चारित्र की उत्पत्ति, वृद्धि और रक्षा के कारणों का विस्तार से वर्णन किया गया है। इसमें यह भी बताया गया है कि कौन-कौन से व्रतों की भावना की जाती है।
चरणानुयोग के प्रमुख ग्रंथ हैं: मूलाचार, मूलाचारप्रदीप, अनगारधर्मामृत, सागारधर्मामृत, रत्नकरण्ड श्रावकाचार आदि।
4. द्रव्यानुयोग
“जीवाजीवसुतत्त्वे, पुण्यापुण्ये च बन्धमोक्षौ च। द्रव्यानुयोगदीपः, श्रुतविद्यालोकमातनुते॥”
इसका अर्थ है कि इस अनुयोग में जीव-अजीव तत्वों, पुण्य-पाप, बंध और मोक्ष का वर्णन किया गया है। इसमें केवल आत्मा-आत्मा का कथन होता है।
द्रव्यानुयोग के प्रमुख ग्रंथ हैं: षट्खण्डागम, कषायपाहुड, कर्मकाण्ड, जीवकाण्ड, अष्टसहस्री न्यायदीपिका, समयसार, नियमसार आदि।
जैन धर्म के अनुयोगों में इन चार प्रमुख भागों के माध्यम से जीवन के विभिन्न पहलुओं का गहन और विस्तृत रूप से वर्णन किया गया है। इन ग्रंथों का अध्ययन समाज को अहिंसा, धार्मिक सिद्धांतों और चारित्र के महत्व को समझने में मदद करता है।
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