भारतीय संस्कृति में जहां मंदिर में भगवान की पूजा और दर्शन का विधान है, वहीं शुभ प्रतीक चिह्नों को भी पूजा और दर्शन के लिए स्थान दिया है। इनके दर्शन और पूजन से शुभता और आध्यात्मिक विकास का मार्ग खुलता है। पढ़िए दीपावली यानी भगवान महावीर के निर्वाण दिवस पर श्रीफल जैन न्यूज की विशेष आलेखों की शृंखला में पहला आलेख…
इंदौर। जैन धर्म में भगवान महावीर सहित सभी तीर्थंकरों ने मानव कल्याण औैर शुभता के लिए अपने सिद्धांत और अमर संदेश के प्रकाश को फैलाया है। इन्हीं संदेशों और सिद्धांतों को लोक कल्याण का आधार बनाया गया। इसमें संयम भी है, आत्म विवेचन भी है और सत्य का प्रभाव भी है। पूजन और दर्शन के लिए भारतीय संस्कृति में कई प्रतीक चिह्न हैं, जिन्हें पूजा भी जाता है और इनके दर्शन भी किए जाते हैं। इन प्रतीक चिह्नों में से एक है स्वस्तिक। स्वस्तिक को जैन समाज बहुत पवित्र मानता है तो हिंदु धर्म में भी इसका खास महत्व है। इसे श्री का प्रतीक माना गया है। श्री का आशय समृद्धि से भी है। स्वस्तिक को जहां पूजा घरों और मंदिरों में महत्व मिला है तो जैन समाज के हर व्यापारिक प्रतिश्ठानों में भी स्वस्तिक नजर आ जाता है। जैन पुराणों के अनुसार स्वस्तिक एक पवित्र और शुभ चिन्ह है, जिसका अर्थ है ‘शुभ’ या ‘कल्याण’। यह चिह्न जैन धर्म के प्रमुख प्रतीकों में से एक है और इसका उपयोग विभिन्न अवसरों पर किया जाता है, जैसे मंदिरों में, पूजा में और जैन त्योहारों पर भी इसका उपयोग बहुत श्रद्धा के साथ किया जाता है। इसके पूजन और दर्शन से आत्म कल्याण की भावना जागृत होती है और मन चैतन्य हो जाता है। जैन समाज में स्वस्तिक का आशय यह है कि यह चिह्न जीवन में शुभता, कल्याण और आध्यात्मिक विकास की कामना करता है।
जैन धर्म में स्वस्तिक का महत्व
-शुभता और कल्याण:’-स्वस्तिक को शुभता और कल्याण का प्रतीक माना जाता है।
-धार्मिक महत्व:-यह चिह्न जैन धर्म के सिद्धांतों और मूल्यों का प्रतिनिधित्व करता है।
-आध्यात्मिक विकास:-स्वस्तिक को आध्यात्मिक विकास और आत्म-साक्षात्कार का प्रतीक माना जाता है।
-सुरक्षा और रक्षा:- यह चिह्न सुरक्षा और रक्षा का प्रतीक भी है।
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