सभी व्यक्तियों का स्वभाव अलग-अलग होता है। हम किसी की तुलना किसी से नहीं कर सकते। परंतु बोलने के संदर्भ में हम यह अवश्य कह सकते हैं कि किसी को भी हम टका-सा जवाब न दें। हमारी वाणी किसी के मन को तीर की तरह न चुभे। सोच-संभलकर बोले। यदि हमारा उद्देश्य कम शब्दों में पूरा होता हो तो ज्यादा बेहतर संवाद कायम किया जा सकता हैं। बशर्ते उसमें बड़बोलेपन का भाव न हो। मुनिश्री प्रणम्य सागरजी महाराज की पुस्तक खोजो मत पाओ व अन्य ग्रंथों के माध्यम से श्रीफल जैन न्यूज Life Management निरंतरता लिए हुए है। पढ़िए इसके 33वें भाग में श्रीफल जैन न्यूज के रिपोर्टर संजय एम तराणेकर की विशेष रिपोर्ट….
अधिक बोलना उथलापन है
ज्यादा बोलना आदमी के उथलेपन को बताता है। अधिक बोलना भी एक बीमारी है। कुछ लोग इतना ज्यादा बोलते हैं कि एक बार शुरु हो जाने पर रुकने का नाम ही नहीं लेते हैं। ऐसे लोग चिपकू टाइप के होते हैं। अधिक बोलना भी उनकी पर्सनेलिटी में समाया रहता है। यह टाकेटिव नेचर (Talkative Nature) होता है। ऐसे लोग पहली मुलाकात में ही लोगों को प्रभावित कर लेते हैं। जब ऐसे लोगों से संबंध बन जाते हैं तो वह संबंधी भी उनसे कतराने लगते हैं। ऐसे लोग बहुत ही रोमांटिक और हरफनमौला होते हैं। जो लोग इनसे मिलते हैं, उन्हें लगता है कि यह आदमी बहुत ज्ञानी है। बहुत व्यवहार कुशल है और हमारे टेंशन को दूर कर देता है। सच यह है कि ऐसे लोग अपने इसी हुनर के कारण धीरे-धीरे परेशानी में पड़ते चले जाते हैं। अधिक बोलने की आदत के कारण लोग इनसे धीरे-धीरे बचने का प्रयास करने लगते हैं। अधिक बोलने वाला बहुत जल्द किसी की कही छोटी बात पर नाराज हो जाता है यह नाराजगी उसे लम्बे समय तक परेशान किये रहती है। गंभीरता का अभाव होने से कहीं भी कुछ भी बोल जाता है और अपने से बड़ों का भी अपमान कर देता है। इसीलिए महावीर ने कहा यत्नपूर्वक बोलो, आवश्यकता पड़ने पर ही बोलो। वास्तव में गंभीर व्यक्तित्व के धनी व्यक्ति के वचनों में दूसरों को प्रभावित करने की एक अद्भुत शक्ति होती है। गंभीर व्यक्ति के निर्णय सटीक होते हैं। गंभीर व्यक्ति समुद्र की तरह शांत और गहरा होता है। किसी ने सच कहा है-
कह रहा है शोरे दरिया से समुन्दर का सकून, जिसका जितना जर्फ है, उतना ही वह खामोश है।
महावीर भगवान का यह सूत्र बहुत गहरा है। इस सूत्र में बहुत वजन है कि यत्न पूर्वक बोलो। बोलने में यत्न अर्थात् सावधानी रखो। बोलने के लिए निषेध नहीं है। किन्तु सावधानीपूर्वक बोलना ही एक नीति है, एक कला है। जब बोलने से पहले मन की सावधानी रहती है तो बोले हुए शब्दों का प्रभाव बढ़ जाता है। वाणी ही सबसे बड़ा धन है। मधुर वचन बोल पाना एक बहुत बड़ी उपलब्धि है। बोलने से पहले मानस बनाना और हृदय की पवित्रता से हितकर बोलने का भाव रखना बात को प्रभावकारी बना देता है।
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