दसलक्षण पर्व दिगंबर जैन परंपरा में प्रमुखता से मनाया जाता है। यह दस दिनों का एक विशेष धार्मिक उत्सव है। यह पर्व भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष की पंचमी से शुरू होकर चतुर्दशी तक चलता है। इस पर्व का उद्देश्य आत्मा की शुद्धि और आध्यात्मिक उन्नति करना है। पढ़िए श्रीफल जैन न्यूज की संपादक रेखा संजय जैन का विशेष आलेख…
जैन धर्म में दसलक्षण पर्व आत्मशुद्धि का महापर्व है। जैन धर्म में इसका अतिविशिष्ट महत्व है। दिगम्बर जैन समाज के दसलक्षण पर्व साल में तीन बार आते हैं, इनमें भाद्रपद मास में आने वाले दसलक्षण पर्व का विशेष महत्व होता है। इस बार भाद्रपद माह में आने वाले पर्युषण पर्व की शुरूआत रविवार यानी आज से हो रही है। दसलक्षण पर्व की परम्परा अनादिकाल से चलती आ रही है। भाद्रपद माह में देशभर के जैन मंदिरों में धर्म की गंगा बहती है। इसमें हर उम्र के श्रावक हिस्सा लेते हैं। अंतर्मुखी मुनि पूज्य सागर महाराज से मिली रोचक जानकारी के आधार पर इस साल महाराष्ट्र, कर्नाटक, मध्यप्रदेश, राजस्थान सहित विभिन्न राज्यों के शहरों में सम्पन्न होने जा रहे पर्युषण पर्व पर होने वाली विशेष आराधना के बारे में आपको अवगत कराएंगे।
दो दिन तक रात और दिन होती है पूजा
महाराष्ट्र के कारंजा जिला वाशिंग में बालात्कर गण दिगंबर जैन मंदिर में पर्युषण पर्व के अंतिम दिन से पूजा शुरू होती है, जो दूसरे दिन तक चलती है। यह पूजा दिन और रात होती है। वहां के श्रावकों का कहना है कि इस प्रकार की पूजा का उल्लेख 1200 साल पुराने प्राचीन शास्त्र में है। वहीं हम अपने बुजुर्गों से भी लगभग 700-800 साल से इस संबंध में सुनते आ रहे हैं। इसके कई अलग-अलग कारण बताए जाते हैं।
20 द्रव्यों से होता है 24 तीर्थंकर भगवान का अभिषेक
कर्नाटक के विश्व प्रसिद्ध क्षेत्र श्रवणबेलगोला में भट्टारक चारूकीर्ति स्वामीजी के मार्गदर्शन में भगवान आदिनाथ से महावीर तक की एक समान पत्थर की प्रतिमा भंडार बस्ती नाम के मंदिर में हैं। जहां जल, दूध, मलियागिरी चंदन सहित 20 द्रव्य से एक साथ 24 तीर्थंकरों की प्रतिमा पर संगीत के साथ पंचामृत अभिषेक किया जाता है। यह अभिषेक चांदी के कलश से किया जाता है। इसी क्रम में 24 चांदी के छत्र, चंवर, दीपक से भक्ति की जाती है। अभिषेक का पूरा क्रम लगभग 2 घंटे चलता है। अभिषेक के समय एक-एक तीर्थंकर की प्रतिमा के समक्ष एक-एक श्रावक होते हैं। दस दिनों में सुविधा अनुसार एक दिन रत्नों व दीपक से पूजा होती है। पूजा का यह क्रम निरंतर 20 वर्षों से चल रहा है।
पर्युषण पर्व के समापन पर निकालते हैं रथयात्रा
राजस्थान के उदयपुर संभाग के हुमड़ समाज के 70-80 गांवों में दसलक्षण पर्व के समापन होने पर कहीं 2 दिन तो कहीं 3 दिन तक रात को रथयात्रा निकाली जाती है। जहां भगवान की भक्ति करते हुए नृत्य, गरबा या आदिवासी समाज का नृत्य गैर खेलते हैं। इस समय उदयपुर के निवासी अपना काम छोड़ कर यहां आते हैं। रथयात्रा दोपहर 3-4 बजे निकलती है और नृत्य के साथ रात 2 बजे तक तो कहीं सुबह 4 बजे तक चलती है। आज भी रथ को अधिकांश गांवों में हाथ से खींचते हैं। जैन समाज के साथ आदिवासी समाज भी इस रथ को हाथ से खींचते हैं। रथ की यह परंपरा 350 साल पुरानी है, तभी से अब तक चलती आ रही है।
धूप खेने के साथ ही मांडला होता है आकर्षण का केन्द्र
मध्यप्रदेश के इंदौर शहर में दसलक्षण के दौरान सुगंध दशमी के दिन इंदौर शहर के छोटे बड़े लगभग 300 मंदिरों में 20हजार से 30 हजार श्रावक सुबह 11 बजे से रात 8- 9बजे तक मंदिरों में धूप खेने जाते हैं। इस पूजा में शामिल होने के लिए जैन श्रावक दूर-दराज से भी आते हैं। इसके साथ ही लगभग सभी मंदिरों में मांडला बनाने की परंपरा निभाई जाती है। धूप खेने के मांडला आकर्षण का केंद्र होता है। यह मांडला रंगोली कांच, मोती कई प्रकार के द्रव्य से बनाए जाते हैं। चयन समिति सबसे सुंदर और आकर्षक मांडला का चयन कर पुरस्कृत भी करती है। यह परंपरा लगभग 50-60 साल से चलती आ रही है।
श्रावक करते हैं मुनियों जैसी चर्या का पालन
मुनि सुधा सागर महाराज दसलक्षण के दौरान जहां पर भी होते हैं, वहां धार्मिक शिविर का आयोजन किया जाता है। लगभग 2500 से 3000 श्रावक देशभर से यहां पहुंचते हैं। शिविर में प्रवेश करने के बाद सफेद धोती दुपट्टा पहनते हैं, मौन रहते हैं व फोन आदि किसी प्रकार के साधनों का उपयोग नहीं करते। घर का पूर्ण रूप से त्याग करते हैं। घर की कोई भी सूचना नहीं आती है। ना ही घर पर किसी प्रकार की सूचना दी जाती है। मुनि श्री स्वयं उन्हें पढ़ाते हैं, पूजन और अभिषेक करवाते हैं। भोजन के लिए निमंत्रण के माध्यम से जैन श्रावक अपने घर सुविधानुसार 2-3 चार शिविरार्थियों को शुद्ध भोजन के लिए ले जाते हैं, मुनिश्री जैसी चर्या का पालन करते है। यह शिविर करीब 30 वर्षाें से चल रहे हैं। हर साल शिविरार्थियों की संख्या बढ़ती जाती हैं।
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