धर्मसभा में प्रवचनों के दौरान जैन धर्म अनुयायी बड़ी संख्या में पुण्यार्जन कर रहे हैं। जो मेरे में है उससे ज्यादा दुनिया में नहीं है और जो मेरे में नहीं है बाकी दुनिया में नहीं है, एक ऐसी स्व चतुष्टय की दृष्टि तात्विक दृष्टि कहलाती है और तात्विक दृष्टि जब प्रकट हो जाती है तब व्यक्ति के मन में पर पदार्थ के प्रति ममत्व भाव टूट जाता है। ये बात निर्यापक मुनिपुंगव श्री सुधा सागरजी महाराज ने अपने प्रवचन में कहीं। पढ़िए बहोरीबंद से राजीव सिंघई मोनू की यह पूरी खबर…
बहोरीबंद (कटनी)। अपने आपको जब व्यक्ति स्व चतुष्टय के रूप में देखता है तो हमारे लिए एक ऐसी शक्ति की अनुभूति होती है कि सब कुछ मैं हूँ और सार्वभौम हूँ मैं। जो मेरे में है उससे ज्यादा दुनिया में नहीं है और जो मेरे में नहीं है बाकी दुनिया में नहीं है, एक ऐसी स्व चतुष्टय की दृष्टि तात्विक दृष्टि कहलाती है और तात्विक दृष्टि जब प्रकट हो जाती है तब व्यक्ति के मन में पर पदार्थ के प्रति ममत्व भाव टूट जाता है।
मेरे पास है उससे ज्यादा दुनिया के पास नहीं है
डाकू तब बनता है जब वह अपने आपको फकीर या असमर्थ समझता है। नियम से जब-जब स्वयं पर पदार्थ की तरफ जा रहे हैं, नियम से हमने अपने आपकी कुछ शक्ति खो दी है, अपनी जिंदगी का सबसे बड़ा अपशगुन कि हम पर पर दृष्टि टिकाये हुए हैं। हमें यह मिल जाये तो मैं सुखी हो जाऊँगा, यही दुख का कारण है और जिस दिन ये आ जाये कि मुझे कुछ नही चाहिए, जो मेरे पास है, उससे ज्यादा दुनिया के पास नहीं है, समझ लेना चाहिए दुख के दिनों में भी आपका सुख का दिन आने वाला है, मुझे कुछ नही चाहिए क्योंकि जो मेरे पास है उससे ज्यादा दुनिया के पास नहीं है।
चार प्रकार के लोग होते हैं
पहले लोग वो हैं, जिनको अपने सम्बन्ध में कुछ भी मालूम नहीं है, मैं कौन हूँ, मैं क्या हूँ, बस वह तो यह जानते हैं कि जो मेरे अनुभव में आ रहा है, वही मैं हूँ, जैसे भिखारी अपने आप को भिखारी, जैन अपने आपको जैन मान लेता है। जो वह है इससे ज्यादा उसकी सोच नहीं बन पाती। वही हूँ और जब वही है उसमे कमी देखने लग जाए तो फिर व्यक्ति दुखी हो जाता है। मैं जैन हूँ, बस इतना ही काफी है, यदि इतनी अनुभूति तुम्हें हो रही है, तुम एक दिन जैनत्व खो दोगे। थोड़ा आगे पीछे सोचो तुम जैन क्यों हो, तुम दुःखी क्यों हो। मैं दुःखी हूँ, ये बात तुम्हारे अनुभव में आती है लेकिन तुम दुखी क्यों हो ये बात विचार में नही आती और ऐसा लगता है कि अब सुखी हो ही नहीं पायेंगे कि दुःख इतना भारी पड़ रहा है कि उसका छोर नहीं मिलता।
दुख ज्यों के त्यों बने रहे और व्यक्ति को सुखी करें
कितनी चीजों से तुम सुख मानते हो, जितने प्रकार के तुम सुख को मान रहे हो उतने प्रकार के दुःख है और जितने प्रकार के दुख है उतने प्रकार के सुख है। ऐसी स्थिति में जैनदर्शन कहता है कि तुम्हारे दुख तो मैं मैट नहीं पाऊंगा लेकिन दुःख में भी मैं तुम्हें सुखी करने की कला बताता हूँ। यह कोई धर्म का अतिशय नहीं है, जो दुख हटा दे, धर्म का अतिशय है दुख ज्यों के त्यों बने रहे और व्यक्ति को सुखी कर दे।
कैसा भी बाप या बेटा हो, हत्या करने की अनुमति नहीं है
जब अपने लोग ही अपनी जिंदगी में संकट बन जाए तो उन्हें हटाने या मिटाने का प्रयास मत करना। यदि तुमने बाप को मार दिया तो तुम बाप के हत्यारे कहलाओगे, निंदा के पात्र बनोगे। कैसा भी बाप या बेटा हो, हत्या करने की अनुमति नहीं है, भले ही वो मेरा नाश कर दे लेकिन मिटाना नहीं है क्योंकि जो अपना व्यक्ति बन गया तो उसे मिटाया नहीं जाता। जैनदर्शन ने भक्त को बचाया तो सही लेकिन किसी को मिटाया नही गया। संसार में किसी को नही मिटाओ, अपने आपको बचाओ तो यही चित्चमत्कार कहलाता है। तुम्हे एक नियम लेना है-मैं किसी का विनाश नहीं करूंगा, मेरे नाश करने वाले का भी मैं विनाश नहीं करूँगा। मेरा दुश्मन भी है तो मैं नाश नही करूँगा, इसलिए इसको महाव्रत बोलते है। अब ये भाव तुम्हारे मन में आ गया और सामने वाला तुम्हारा नाश करने के लिए तैयार है, बस अब चमत्कार होगा, अब बनेगा नाग का हार।
जो असहाय हो उसके पक्ष में खड़े हो जाना
लड़के की सबसे बड़ी कमी होती है कि माँ का पक्ष तो लेना चाहिए लेकिन जब पत्नी का विनाश होने लग जाए तो पत्नी का पक्ष लेना चाहिए क्योंकि वो पराये घर से आई है, वह तुम्हारे विश्वास पर आई है। तुम्हारे अलावा उसका इस घर मे कोई नहीं है क्योंकि माँ का तो सब कुछ है, पिता है, तू खुद बेटा है। सही व्यक्ति वो कहलाता है जिसका कोई नही होता। जो असहाय हो उसके पक्ष में खड़े हो जाना चाहे माँ भी क्यों न हो, पिता भी क्यों न हो। फिर आपका चमत्कार देखना कितना अतिशय आता है। दुश्मन भी कमजोर पड़ रहा है तो मैं उसका साथ दूंगा। पत्नी का साथ देने को नही कहा, नही तो तुम जोरू के गुलाम बन जाओ। नही कमजोर, असहाय का साथ देना।
यदि दुश्मन भी असहाय हो तो उसका साथ दो
यदि दुश्मन भी असहाय हो तो मैं उसका साथ दूँगा, उस समय तुम्हारे परिणाम कि कुछ नही, मात्र मुझे बचाना है, इस समय मेरी इसको जरूरत है, दुश्मनी भूल जाओ और जैसे ही तुमने यह किया नहीं, उसी समय तुम्हारे जीवन में ऐसा चमत्कार होगा कि भूकंप आ जाएगा, सारा नगर दबकर मर जाएगा और तुम्हें खरोच भी नहीं आएगी, ये चमत्कार णमोकार मंत्र, शांतिधारा, मेरे आशीर्वाद में नही है और ये यदि तुम्हारा भाव न बन पाए तो जिनसे हमारा संबंध है, जिनसे हमने कभी राग किया है, अपना माना है, ये भली मेरा कुछ भी बिगाड़ लें, मैं कभी अपनों को मारने का भाव नहीं करूंगा, चाहे भली आज वह मेरा दुश्मन बन गया हो, कल तो मेरा ही था। ये सेकेंड नम्बर की शक्ति जागेगी कि तुम्हारे अपने भी सारे विरोध में हो जाए तो भी तुम्हारा कुछ भी नहीं बिगाड़ पाएगा। ये नियम था पारसनाथ का, तभी वे आज जगतपूज्य बन गए।
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