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भगवान को नमोस्तु इसलिए करो नमोस्तु करते-करते भगवान बन जाओगेः मुनिश्री के प्रवचनों में धर्म और ज्ञान की बह रही है गंगा


मुनिश्री सुधासागर जी महाराज इन दिनों में कटनी में विराजमान होकर अपने प्रवचनों के माध्यम से धर्म और ज्ञान का अकूत भंडार बांट रहे हैं। धर्मसभा में नित बड़ी संख्या में जैन समाज के श्रद्धालु नियमित रूप से शामिल होकर धर्मलाभ उठा रहे हैं। पढ़िए कटनी से राजीव सिंघई की यह खबर…


कटनी। मुनिश्री सुधासागर जी महाराज ने यहां धर्मसभा को संबोधित करते हुए अपने प्रवचन के माध्यम से कई मंगल संदेश और उपदेश देकर जैन समाज के श्रद्धालुओं को धर्म और ज्ञान के सागर में गोते लगवाए। उन्होंने अपने प्रवचन के माध्यम से सोमवार को कहा कि स्थापना निक्षेप दो परपज से की जाती है। एक परपज वह होता है कि अदृश्य शक्तियों को दृश्य में बांध लेना। अदृश्य शक्तियों को कैसे दिखाया जाए। उसका एक आकार रूप लिया जाता है और तुम अदृश्य शक्तियों को स्वीकार करते हो या नहीं, यह श्रद्धा प्रतिमा से आंकी जाती है। यदि तुम प्रतिमा को भगवान नहीं मान सकते हो तो तुम साक्षात जिनेंद्र को भी भगवान को नहीं मान सकते हो क्योंकि, जो चीज आप हमारे लिए मनवाना चाहते हैं वह चीज न तो चेतन भगवान में दिखता है, न मूर्ति में दिखता है। मूर्तिमान कभी देखने में नहीं आता, मूर्ति ही देखनी में आती है।

इसलिए ये मूर्ति बनाने की परंपरा है

समवशरण में मानस्तंभ और चैत्यवृक्षों की क्या आवश्यकता थी क्योंकि, वहां तो साक्षात भगवान बैठे हैं। वहां सबसे बड़ा यह है कि बड़े आदमियों के अंदर हर व्यक्ति को जाने नहीं दिया जाता है। पहले चौकीदार होता है, पूछा जाता है आप कैसे और क्यों आए? जब समवशरण में कोई साक्षात जिनेंद्र देव के दर्शन करें तो उससे पूछा जाता है कि तुम्हे मानस्तंभ में क्या दिख रहा है? यदि वह कहेगा कि मुझे तो पाषाण या रत्नों की मूर्ति दिख रही है तो वह समवशरण में नहीं जा सकेगा, मिथ्यादृष्टि है। यदि उसने कह दिया कि मानस्तंभ में साक्षात भगवान बैठे हैं। तब देवता उसे सम्मान के साथ भगवान का दर्शन कराते हैं क्योंकि, जिन्हें पाषाण की मूर्ति में भगवान का रूप दिख गया, उन्हें इस हाड़ मांस के शरीर मे बैठी हुई आत्मा भी भगवान दिख जाएगी, इसलिए ये मूर्ति बनाने की परंपरा है।

परिणाम स्वरूप एक दिन तुम सही के सिद्ध बन जाओगे

भक्त को अनुभव हो रहा है कि मैंने साक्षात भगवान का स्पर्श कर लिया और साक्षात भगवान को कोई छूता नहीं। मैंने भगवान के दर्शन कर लिए और भगवान दिखते ही नहीं, दिखता तो शरीर है, दिखता तो बाहर का आकार है तब शुभचंद्र आचार्य ने कहा कि मुझे मालूम है कि सामने भगवान नहीं है लेकिन बार-बार तुम जिसकी भावना करोगे, मैं अरिहंत हूं, अरिहंत हूं, मैं सिद्ध हूं। मैं कर्मों से, शरीर से रहित हो गया हूं। ऐसी हजारों, लाखों बार तुम भावना करोगे, उसी भावना के परिणाम स्वरूप एक दिन तुम सही के सिद्ध बन जाओगे। ये सही का समवशरण नहीं है, ये पक्का है लेकिन, इस समवशरण में प्रवेश करते समय यह अनुभव में आ गया कि यही सच्चा समवशरण है तो एक दिन तुम सही के समवशरण के मालिक बन जाओगे, ये अनुभूति ही हमारा भविष्य है।

समवशरण आओ प्रहलाद की आंख लेकर आना

दो चीज तुम्हारे मन मे नहीं आना चाहिए। एक तो यह समवशरण पाषाण का है, दूसरा किसने बनाया, किसने नहीं। तुम बोली लेने वालों की अनुमोदना इसलिए मत किया करो कि वह समर्थ है, वह दानवीर है बल्कि इसलिए अनुमोदना करो कि आज तुम असमर्थ हो, उसको जय जिनेंद्र कर लोगेतो कल तुम भी समर्थ बन जाओगे। भगवान को नमोस्तु इसलिए करो कि भगवान को नमोस्तु करते-करते एक दिन तुम खुद भगवान बन जाओगे। तीन भावना करना-जैसे भावना हम करेंगे, वैसी ही उपलब्धि हमें होगी। दूसरा जब भी समवशरण आओ प्रहलाद की आंख लेकर आना।

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