वास्तविक रूप से देखा जाए तो सनातन धर्म, जैन धर्म ही है, हम सनातनी हैं हमारे धर्म के कोई संस्थापक नहीं है, न ऋषभदेव है न महावीर है, हमारे धर्म का कोई कर्ता धर्ता नहीं है। सनातन धर्म का प्रचार हम लोगों को करना चाहिए। पढ़िए राजीव सिंघई मोनू की रिपोर्ट…
जब हम संगोष्ठी के विभिन्न विषयों को देखते हैं तो जैनदर्शन एक ऐसा बहुआयामी सर्वोदय के रूप में प्रस्तुत होता है कि लोग संदेह में पड़ जाते हैं कि सत्य क्या है, जैनदर्शन सत्य किसे मानता है, जैन दर्शन में न राग का निषेध है, न वीतराग का निषेध है। जितना वीतराग को स्वीकार किया गया, उतना ही राग को। वीतराग का स्वरूप क्या होना चाहिए, यह तो जैनदर्शन में मुख्य पद पर अधिष्ठित है लेकिन विशेषता ये है कि वीतराग धर्म से जाना जाने वाला धर्म राग की विशेषता बताता है कि राग कैसा होना चाहिए।
नाच गान आदि ललित कालाओं का वर्णन ऋषभदेव ने किया, वो तो वीतराग मार्ग के संस्थापक थे, वह तो संसार को तारने के लिए तीर्थंकर बने थे, जैन दर्शन की सबसे बड़ी विशेषता है कि वह किसी भी चीज का निषेध नहीं करता, पाप का भी निषेध नहीं करता यदि तुम्हें पापी बनना है, नरक में जाना है तो नरक जाने की भी विधि बताई। बस शर्त एक ही है तुम कौन हो, 72 कलाओं में चोर कला बता दी, धुत को कला में ले लिया। उनके जन्मदिन पर नीलांजना का नृत्य होना और उसमे मगन होना, ललित कथा की रुचि का प्रतीक है।
राग भी संस्कारित होता है
जैनदर्शन हर भूमिका का कथन करता है, तुम कौन हो, तुम्हारा प्रयोजन क्या है? तुम्हारी अर्थ क्रिया क्या है? इन पर विचार करते हैं तो जैनदर्शन में राग की क्रियाओं को भी व्यवस्थित किया गया। राग का समर्थन नहीं किया गया, राग को उत्श्रृंखल होने से बचाया। ललित कलाओं का अर्थ यह नहीं है कि राग में रंगायमान करना, उद्दंड, उत्श्रृंखल न हो, वो रावण जैसा न हो। राग की भी एक संस्कृति होती है, राग भी संस्कारित होता है। राग ऐसा करो जिसमें संस्कृति बने, संस्कार बनें। विवाह को संस्कृति में ले लिया जो राग है, संसार का बढ़ावा देने वाला है। नाचगान होना चाहिए, उन्होंने निषेध नहीं किया लेकिन नाचगान अश्लील नहीं होना चाहिए, ललित कला का इतना सुंदर वर्णन किया कि नीलांजना का कोई भी अंग प्रदर्शित नहीं होता, अर्धनग्न होकर नाच नहीं किया जाता। नीलांजना जितनी देर नाचती रही पूरे समय उसकी दृष्टि ऋषभदेव पर रही। उसकी दृष्टि में फुहड़ता, अश्लीलता नहीं थी, उसकी दृष्टि में एक संस्कार, एक कला थी।
मंदिर निर्माण जैनियों का असाधारण प्रतीक है
ऋषभदेव के शिल्प कला में मंदिर मानस्तंभ आदि आये, ये जैनदर्शन की ही देन है। दुनिया में किसी भी संप्रदाय में मंदिर का, प्रतिमाओं का उल्लेख नहीं है क्योंकि सब अद्वेतवादी है। मंदिर निर्माण जैनियों का असाधारण प्रतीक है, अकृत्रिम चैत्यालय उसका प्रतीक है और जब कर्मभूमि की रचना हुई तब सौधर्मेन्द्र ने पाँच चैत्यालयों की रचना की, एक मध्य में व चार दिशाओं में। ये अनादि अनन्त कलाएं है जो भोगभूमि के समय तिरोहित हो गयी, उनको उद्घाटित ऋषभदेव ने किया।
देवगढ़ में राजा ने कहा कि मैं तुम्हारी एक भी मूर्ति सुरक्षित नहीं रहने दूंगा, मेरा संकल्प है, इसलिए जैनियों आप लोग मूर्ति बनाना बन्द करो, मूर्ति की स्थापना बन्द करो। एक जैनी श्रावक ने कहा राजन आप राजा है, खण्डित करने का आपका संकल्प है, मैं आपको रोकने वाला नहीं हूँ लेकिन आप भी मुझे बनाने से नहीं रोक सकते। कहते हैं कि राजा खंडित करते-करते थक गया लेकिन बनाने वाला जीत गया, देवगढ़ इसका प्रतीक है। देवगढ़ के 50 किलोमीटर के अंदर आज भी मूर्तियाँ मिलती है, इसलिए जैनदर्शन का आसाधारण गुण है तीर्थक्षेत्र, मूर्ति विद्या।
समवशरण में पहले मानस्तंभ में मूर्ति का दर्शन करना पड़ता है
जब भगवान साक्षात पृथ्वी पर जीवित होते हैं, उनके सामने मूर्ति की कीमत होती है। समवशरण में पहले मानस्तंभ में मूर्ति का दर्शन करना पड़ता है, चैत्यवृक्ष में चैत्यों के ऊपर मूर्तियां होती है उनको नमस्कार करो। यानी जिनेन्द्र भगवान के सामने मूर्ति उतनी ही महत्वपूर्ण थी, जितनी आज अपने लिए है। इसका अर्थ है कि जिनेंद्र भगवान ने मूर्ति को स्वीकार किया। ऋषभदेव के पहले भी मूर्ति थी, इसका प्रतीक है समवशरण।
मात्र पुराने तीर्थ क्षेत्र को ही सुरक्षित नहीं करना है, नए तीर्थक्षेत्रों की परंपरा हर युग में हर शताब्दी में, सौ साल में कोई न कोई तीर्थ बनना ही चाहिए, जिससे यह पता चले कि तीर्थक्षेत्रों की परंपरा अक्षुण्ण बनी रही। पुरानी मंदिरों की पूजा हो या न हो, हर शताब्दी में नई शिल्प की स्थापना होना चाहिए, जिससे सन्तति आगे बढ़ती है। तीर्थक्षेत्रों में मंदिरों की सबसे बड़े ह्रास का कारण है वास्तु दोष। आज तक भारत में ऐसा कोई मंदिर नहीं मिला, जिसमें वास्तु दोष हो और वो उजड़ गया हो और ऐसा भी मंदिर नहीं मिला जिसमें वास्तु दोष है और वो सुरक्षित बना रहा हो। यदि वास्तु से निर्दोष मंदिर है तो वह कभी समाप्त नहीं होगा, मंदिर से एक दिन वह तीर्थ बन जाएगा और अपना अतिशय दिखायेगा।
वास्तविक रूप से देखा जाए तो सनातन धर्म, जैन धर्म ही है, हम सनातनी हैं हमारे धर्म के कोई संस्थापक नहीं है, न ऋषभदेव है न महावीर है, हमारे धर्म का कोई कर्ता धर्ता नहीं है। सनातन धर्म का प्रचार हम लोगों को करना चाहिए।
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