जैन धर्म में सत्य को अत्यंत पवित्र माना जाता है। इसे सच्चाई और ईमानदारी के रूप में देखा जाता है। जैन ग्रंथों में सत्य को “सच्चा”, “निष्कलंक” और “अखंड” कहा गया है। सच्चे और ईमानदार विचार और कर्म की ओर प्रवृत्त होना व्यक्ति के आत्मा की उन्नति के लिए आवश्यक माना जाता है। पढ़िए अंतर्मुखी मुनि पूज्य सागर का विशेष आलेख…
दसलक्षण धर्म के पांचवें दिन यानि उत्तम सत्य धर्म को बीज धर्म के समान माना गया है। इसे कुछ यूं समझें कि बीज अच्छा हो, जमीन उपजाऊ हो तो फसल स्वतः ही अच्छी होगी परंतु बीज अच्छा हो पर जमीन उपजाऊ न हो तो फसल कभी भी अच्छी नही हो सकती। मानव जीवन में क्रोध, मान, माया, लोभ, कषाय, मद, और मोह जमीन के समान है और सत्य बीज है। कषाय के साथ, राग, द्वेष, ईर्ष्या, लोभ, डर और बदले की भावना से बोला सत्य भी असत्य है क्योंकि उद्देश्य गलत है।
धर्मलाभ, आत्मकल्याण, दूसरों का अच्छा हो इस भाव से बोला असत्य भी सत्य है क्योंकि उद्देश्य बेहतरीन है। वास्तविकता में मन, वचन, काय की क्रिया का बन्द होना ही उत्तम सत्य धर्म है। इसी अवस्था में व्यक्ति अपने वास्तविक स्वरूप में आता है। स्वयं की पहचान ही वास्तव में उत्तम सत्य धर्म है। इस अवस्था में आत्मा कर्मों से रहित होती है।
मौन कर्मों से रहित अवस्था का नाम है। वही बोलना कर्मों से सहित अवस्था है। बोलता वही है, जिसके पास ज्ञान कम हो जिसके पास ज्ञान होता वह तो मौन हो जाता है क्योंकि वह जानता है कि जो दिखाई दे रहा वह उसका है ही नहीं। जो मेरा है वह मौन से मिल सकता है। इसलिए सत्य को पाने के लिए मौन हो जाओ। मौन ही जीवन का आधार है।
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