स्वाश्रित जीवन आत्मा को जानने से ही शुरू होता है। यह उद्गार बाल ब्र. श्री सुमतप्रकाश जी खनियाधाना ने अपने प्रवचन में ललितपुर रोड स्थित श्री दि. जैन महावीर पंच बालयति मंदिर, महरौनी के श्री कुंदकुंद स्वाध्याय भवन में 23 जुलाई से बाल ब्र. श्री रविंद्र जी आत्मन् द्वारा रचित स्वाश्रित जीवन पर चल रही 4 दिवसीय धर्मसभा में कही। पढ़िए राजीव सिंघई रिपोर्ट…
महरौनी। स्वाश्रित जीवन आत्मा को जानने से ही शुरू होता है। यह उद्गार बाल ब्र. श्री सुमतप्रकाश जी खनियाधाना ने अपने प्रवचन में ललितपुर रोड स्थित श्री दि. जैन महावीर पंच बालयति मंदिर, महरौनी के श्री कुंदकुंद स्वाध्याय भवन में 23 जुलाई से बाल ब्र. श्री रविंद्र जी आत्मन् द्वारा रचित स्वाश्रित जीवन पर चल रही 4 दिवसीय धर्मसभा में कही। उन्होंने बताया कि क्रोध आदि विकार अज्ञान में अच्छे लगते हैं । भगवान का सुख देखकर हम दुखी हैं यह समझ में आता है यह जीव कपट वश दुखी होने पर भी स्वयं को सुखी मानता है। अकर्ता समझते ही कर्तृत्व का दुख मिटता है और आनंद उत्पन्न होता है।
प्रभुता का भान नहीं होने से पामरता ही प्रभुता लगती है। आत्मा को जानते ही समस्त इच्छाओं का अभाव होना आरंभ हो जाता है। अज्ञानियों का धर्म भी भोग के निमित्त होता है पर द्रव्यों से अनुबंध ही दुख है और स्वयं से अनुबंध ही सुख है। अतृप्ति मोह का लक्षण है और परिपूर्ण स्वभाव को जानने के बाद सहज ही तृप्ति होती है। आत्मलीनता में प्रवृत्ति नहीं होती इसलिए यही निवृत्ति कहीं जाती है। शरीर में एकत्व ही इच्छाओं का जन्मदाता है। भगवान के समान आत्मा देखने पर यह संसार मेरे लायक है ऐसी भ्रांति छूट जाती है। मंदिर जाकर भगवान के दर्शन से पर पदार्थ संबंधी इच्छाएं घटने लगती हैं इसलिए मंदिर जाना धर्म कहा जाता है। स्वाश्रित जीवन आत्मा को जानने से ही शुरू होता है।
चरित्र की दृढ़ता का होना ही अपने पैरों पर खड़े होना है वास्तव में राग ही रोग है और रोगों का कारण है स्व और पर को अपने समान आत्मा देखने से राग भी मिटते हैं और रोग भी मिटते हैं। अहिंसा सत्य आचार्य ब्रह्मचर्य अपरिग्रह का पालन हमें राग और रोगों से बचाता है। आंतरिक रोग कषायें हैं। जिनके मिटने पर बाहर के रोग सहज मिट जाते हैं।मोह अर्थात केवलज्ञान का हत्यारा। मिथ्या संतोष महा अपराध है जो दुख घटाएं और मिटाये वह धर्म है स्वावलंबन हर समय का आवश्यक कर्तव्य है।
हेय अर्थात उस कार्य को करने पर भी मिथ्या संतोष नहीं होना गुरुओं का प्रसाद उनके द्वारा दिया गया आत्मा का अनुग्रह पूर्वक उपदेश है। अशुभ भाव अत्यंत हेय है। जागृत चेतना ही सर्व समाधान कारक हैं। धर्मसभा में ब्र. चर्चित भैया, सुरेंद्र, हिमांशु भैया, प्रदीप भैया, रूपेश भैया, टीकमगढ़ और बानपुर से पधारे सधर्मी जन, समस्त ट्रस्टीगण और स्थानीय सधर्मीजन उपस्थित रहे।
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