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पौष शुक्ल पक्ष एकादशी पर द्वितीय तीर्थंकर भगवान अजितनाथ को हुआ केवल ज्ञानः अयोध्या में जन्मे भगवान अजितनाथ


भगवान अजितनाथ जैन धर्म के 24 तीर्थंकरों में से दूसरे तीर्थंकर हैं और इनके भव्य मंदिर देश के विभिन्न प्रांतों, शहरों और कस्बों में हैं। 10 जनवरी को पौष शुक्ल पक्ष एकादशी के दिन भगवान अजितनाथ को केवल ज्ञान हुआ था। इस दिन यानि 10 जनवरी शुक्रवार को भगवान अजितनाथ का ज्ञान कल्याणक मनाया जाएगा। मंदिरजी में विविध धार्मिक आयोजन किए जाएंगे। भगवान अजितनाथ के बारे में जैन धर्मशास्त्रों में जो वर्णित है उसके आधार पर उनके जीवन से जुड़ी कहानी को यहां श्रीफल जैन न्यूज संजोकर लाया है। पढ़िए प्रीतम लखवाल उप संपादक श्रीफल जैन न्यूज की यह स्पेशल रिपोर्ट…


इंदौर। भगवान अजितनाथ जैन धर्म के 24 तीर्थकरों में से वर्तमान अवसर्पिणी काल के द्वितीय तीर्थंकर हैं। भगवान अजितनाथ का जन्म अयोध्या के इक्ष्वाकु वंशीय क्षत्रिय राज परिवार में माघ के शुक्ल पक्ष की अष्टमी में हुआ था। इनके पिता जितशत्रु थे और माता विजया थीं। इनका चिह्न हाथी है। जैन धर्मग्रंथों में दी गई जानकारी के आधार पर भगवान अजितनाथ की कुल आयु 72 लाख पूर्व की थी। जेठ महीने की अमावस पर जब रोहिणी नक्षत्र का कला मात्र से अवशिष्ट चंद्रमा के साथ संयोग था तब ब्रह्ममुहूर्त के पहले महारानी विजयसेना ने चौदह स्वप्न देखे। उस समय उनके नेत्र बाकी बची हुई अल्प निंद्रा से कलुषित हो रहे थे। महारानी विजया ने चौदह स्वप्न देखने के बाद देखा कि हमारे मुख कमल में एक मदोन्मत्त हाथी प्रवेश कर रहा है। जब प्रातःकाल हुआ तो महारानी ने जितशत्रु महाराज से स्वप्नों का फल पूछा और देशावधि ज्ञानरूपी नेत्र को धारण करने वाले महाराज जितशत्रु ने उनका फल बतलाया कि तुम्हारे स्फटिक के समान निर्मल गर्भ में विजय विमान से तीर्थंकर पुत्र अवतीर्ण हुआ है। वह पुत्र, निर्मल तथा पूर्वभव से साथ आने वाले मति-श्रुत-अवधिज्ञान रूपी तीन नेत्रों से देदीप्यमान है। भगवान् आदिनाथ के मोक्ष चले जाने के बाद जब 50 लाख करोड़ सागर वर्ष बीत चुके तब द्वितीय तीर्थंकर का जन्म हुआ था। इनकी आयु भी इसी अंतराल में सम्मिलित थी।

देवों ने मैरू पर्वत पर जन्माभिषेक कल्याणक किया 

जन्म होते ही सुंदर शरीर धारक तीर्थंकर भगवान् का देवों ने मैरू पर्वत पर जन्माभिषेक कल्याणक किया और इनका नाम अजितनाथ नाम रखा। 4 सौ पचास धनुष शरीर की ऊंचाई थी। अजितनाथ स्वामी के शरीर का रंग स्वर्ण के समान पीला था। उन्होंने बाह्य और आभ्यंतर के समस्त शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर ली थी। जब उनकी आयु का चतुर्थांश बीत चुका, तब उन्हें राज्य प्राप्त हुआ। उस समय उन्होंने अपने तेज से सूर्य का तेज भी जीत लिया था। एक लाख पूर्व कम अपनी आयु के तीन भाग तथा एक पूर्वांग तक उन्होंने राज्य किया।

भगवान अजितनाथ की 12 सभाओं की संख्‍या है

उनके सिंहसेन आदि नब्‍बे गणधर थे। 3 हजार 750 पूर्वधारी, 21 हजार 600 शिक्षक, 9 हजार 400 अवधि ज्ञानी, 20 हजार केवल ज्ञानी, 20 हजार 400 सौ विकिया-ऋद्धिवाले, 12 हजार 450 मनरूपर्ययज्ञानी और 12 हजार 400 अनुत्‍तरवादी थे। इस प्रकार सब मिलाकर एक लाख तपस्‍वी थे। प्रकुब्‍जा आदि 3 लाख 20 हजार आर्यिकाएं थीं, 3 लाख श्राव‍क थे। 5 लाख श्राविकाएं थीं और असंख्‍यात देव-देवियां थीं। इस तरह उनकी 12 सभाओं की संख्‍या थी।

चैत्र शुक्ल पंचमी को पाया मुक्ति पद

चैत्र शुक्ल पंचमी के दिन जब चंद्रमा रोहिणी नक्षत्र में था, प्रातःकाल के समय प्रतिमा योग धारण करनेवाले भगवान् अजितनाथ ने मुक्तिपद प्राप्‍त किया।

बचपन से ही विरक्त थे भगवान अजितनाथ

द्वितीय तीर्थंकर अजितनाथ के तीर्थ में सगर नाम का दूसरा चक्रवर्ती हुआ। जब राजा जितशत्रु वृद्ध हो गए और अपने जीवन का अंतिम भाग आध्यात्मिक कार्यों में लगाना चाहते थे। उन्होंने अपने छोटे भाई को बुलाया और उसे राजगद्दी संभालने के लिए कहा। सुमित्रा को राज्य की कोई इच्छा नहीं थी। वह भी तपस्वी बनना चाहता था। दोनों राजकुमारों को बुलाया गया और उन्हें राज्य देने की पेशकश की गई। अजित कुमार बचपन से ही स्वभाव से विरक्त व्यक्ति थे। इसलिए उन्होंने भी मना कर दिया। राजकुमार सगर राजगद्दी पर बैठे। राजा सगर ने इस काल में छह महाद्वीपों पर विजय प्राप्त की और चक्रवर्ती बन गए।

राजा मेघवाहन को सगर ने सौंपा राज्य

राजा मेघ वाहन और राक्षस द्वीप के शासक विद्याधर भीम, सम्राट सगर के समकालीन थे। एक बार वे भगवान अजितनाथ के प्रवचन में गए। वहां विद्याधर भीम आध्यात्मिक जीवन की ओर आकर्षित हुए। वह इतने विरक्त हो गए कि उन्होंने अपना राज्य लंका और पाताल लंका के प्रसिद्ध शहरों सहित राजा मेघवाहन को दे दिया। उन्होंने अपना सारा ज्ञान और चमत्कारी शक्तियां भी मेघवाहन को दीं। उन्होंने 9 बड़े और चमकीले मोतियों की एक दिव्य माला भी दी। मेघवाहन राक्षस कुल का पहला राजा था। जिसमें प्रसिद्ध राजा रावण का जन्म हुआ था।

सगर के 60 हजार पुत्रों की मृत्यु

सम्राट सगर की हज़ारों रानियां और 60 हज़ार पुत्र थे। उनमें सबसे बड़े थे जन्हु कुमार। एक बार सभी राजकुमार सैर पर गए। जब वे अस्तपद पहाड़ियों की तलहटी में पहंुचे, तो उन्होंने बड़ी-बड़ी खाइयां और नहरें खोदीं। अपनी युवावस्था में इन नहरों को गंगा के पानी से भर दिया। इस बाढ़ ने निचले देवताओं के घरों और गांवों को जलमग्न कर दिया। जिन्हें नाग कुमार कहा जाता है। इन देवताओं के राजा ज्वालाप्रभ आए और उन्होंने उन्हें रोकने की व्यर्थ कोशिश की। उपद्रवी राजकुमार राजसी शक्ति के नशे में चूर थे। अंत में ज्वालाप्रभ ने अपना आपा खो दिया और सभी 60 हज़ार राजकुमारों को राख में बदल दिया। अपने सभी पुत्रों की अचानक मृत्यु से सम्राट सगर को बहुत दुःख हुआ। उन्होंने साम्राज्य की बागडोर अपने सबसे बड़े पौत्र भगीरथ को सौंप दी और भगवान अजितनाथ से दीक्षा ले ली।

शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को निर्वाण 

जब उनके अंतिम क्षण निकट आ रहे थे। भगवान अजितनाथ सम्मेद शिखर पर चले गए। एक हजार अन्य तपस्वियों के साथ उन्होंने अपना अंतिम ध्यान आरंभ किया। चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को उन्हें निर्वाण प्राप्त हुआ। दूसरे जैन तीर्थंकर अजितनाथ का जन्म अयोध्या में हुआ था। यजुर्वेद में अजितनाथ का नाम तो है, लेकिन इसका अर्थ स्पष्ट नहीं है। जैन परंपराओं के अनुसार उनके छोटे भाई सगर थे जो दूसरे चक्रवर्ती बने। उन्हें हिंदू धर्म और जैन धर्म दोनों की परंपराओं से जाना जाता है। जैसा कि उनके संबंधित हिंदू धर्मग्रंथों पुराणों में पाया जाता है।

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