श्रीफल जैन न्यूज में इस अंक में हम बात करेंगे संस्कारों के बारे में। संस्कार, जिनके बिना जीवन के मायने नहीं है। जैन धर्म में संस्कारों को अहम स्थान है। जैन संस्कार में कई तरह की क्रियाएं बताई गई है। इस कड़ी में हम बात करने वाले हैं कर्त्रन्वय क्रियाओं की…पढ़िए विस्तार से
जीवन में संस्कारों का बेहद महत्व है। संस्कार ही व्यक्ति को जीवन जीने का तरीका सिखाते हैं। कहा जाता है कि व्यक्ति कुछ संस्कार अपने साथ लेकर आता है और कुछ इस संसार में आने के बाद संगति और शिक्षा से पाता है। इसलिए जैन धर्म में गर्भ में आने से पहले ही शिशु में विशुद्ध संस्कार का विधान बताया गया है। संस्कार की यात्रा गर्भावतरण से ही शुरू हो जाती है। गर्भावतरण से लेकर निर्वाण पर्यन्त तक जिनेन्द्र पूजन सहित 53 क्रियाओं के विधान बताए गये है। इस बार हम कर्त्रन्वय क्रियाओं के बारे में बात करेंगे।
कर्त्रन्वय क्रियाएं वे हैं जो कि पुण्य कर्म करने वालों को प्राप्त हो सकती हैं। यह सात तरह की होती हैं। ये तीनों लोकों में उत्कृष्ट मानी गई है।
1. सज्जाति – जब मनुष्य दीक्षा धारण करने योग्य उत्तम वंश में विशुद्ध जन्म लेता है तो उसकी सज्जाति क्रिया होती है। सज्जाति की प्राप्ति होने पर सहज प्राप्त हुए गुणों से रत्नत्रय की प्राप्ति आसान हो जाती है। जिस समय यज्ञोपवीत आदि संस्कारों को पाकर परब्रह्म को प्राप्त होता है। तब दिव्य ज्ञानरूपी गर्भ से उत्पन्न हुआ होने के कारण सज्जाति को धारण करने वाला समझा जाता है।
2. सद्गृहित्व – गुणों के जरिए अपनी आत्मा की वृद्धि करना सद्गृहित्व क्रिया है। इसमें मनुष्य गृहस्थ योग्य होने पर षटकर्मों का पालन करता हुआ, शास्त्रज्ञान को पढ़ता हुआ और दूसरों को पढ़ाता है। वह देव ब्राह्मण है। उसका चरित्र उत्तम होता है इसकी कारण वह वर्णोत्तम है। सच्चा जैन श्रावक ही सच्चा ब्राह्मणोत्तम है। उसके अंदर मैत्री, कारूण्य का भाव होता है। हिंसा का उसे स्पर्श भी नहीं होता।
3. पारिव्रज्य – गृहस्थ जीवन में अपनी धर्म का पालन करने के बाद उसके विरक्त होते हुए दीक्षा ग्रहण करना परिव्रज्या कहलाता है। मोह-माया छोड़कर दिगंबर रूप धारण करना ही पारिव्राज्य क्रिया है।
4. सुरेन्द्रता – पारिव्रज्य के बाद यह सबसे अहम क्रिया है। जिसमें वह सुरेन्द्र पद की प्राप्ति होती है।
5. साम्राज्य – यह चक्रवर्ती के वैभव राज्य प्राप्ति से संबंधित क्रिया है।
6. परमार्हंत्य – परमार्हंत्य क्रिया तीनों लोकों में क्षोभ पैदा करने वाली है। इसमें अर्हंत परमेष्ठी को पंचकल्याणक रूप संपदाओं की प्राप्ति होती है।
7. परमनिर्वाण – यह सिद्ध पद की प्राप्ति की क्रिया है। सांसारिक बंधनों से मुक्त उस परम आत्मा की जो अवस्था है उसे ही परमनिवृत्ति कहते हैं। पहले मनुष्य योग्य जाति को पाकर सज्जाति होता है, फिर सदगृहित्व, उसके बाद अपने गुरुओं के आशीर्वाद से पारिव्रज्य को प्राप्त करता है।
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