ग्रन्थमाला

सम्यक चर्या का पालन करने वाला ही मोक्ष मार्ग का सच्चा राही 

आधुनिक सुख-सुविधाओं और विकास की अंधी दौड़ में आज व्यक्ति के दैनिक जीवन और वातावरण में बड़ा बदलाव आ गया है। मनुष्य आध्यात्मिक और धार्मिक क्रियाओं से दूर होता जा रहा है। वह धर्म से अधिक महत्व भौतिक वस्तुओं, परिवार, समाज, मित्रता, वैभव, विलासिता, खर्चीले आयोजनों और बनावटीपन आदि को दे रहा है।

इन सबके कारण मनुष्य जीवन की सत्यता और सकारात्मकता से भटक गया है। वह बाहर से धर्म का पालन करते हुए नजर आता है, लेकिन अंतः मन से वह भौतिकता के चरम की ओर अग्रसर हो रहा है। यही कारण है कि वर्तमान में धर्म करते हुए भी धर्म का फल नहीं मिल रहा है।

कई बार अज्ञानवष हम यह कह देते हैं कि संसार में धर्म नहीं बचा है, लेकिन वास्तविकता कुछ और है। धर्म शाष्वत है, उसको धारण करने वाले मनुष्यों का अभाव हो गया है।

आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में कहा है कि –

 

सद्दृष्टिज्ञानवृत्तानि धर्मं धर्मेश्वरा विदुः ।

यदीयप्रत्यनीकानि भवन्ति भवपद्धति ।।

अर्थात – धर्म के ईष्वर तीर्थंकर भगवान ने सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक चारित्र को धर्म कहा है। इसके विपरीत मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र संसार एवं दुखों के कारण हैं।

तीर्थंकर भगवान की दिव्य ध्वनि के माध्यम से उद्घृत धर्म की परिभाषा को शाब्दिक रूप में प्राचीन ग्रन्थों में अनेक प्रकार से संजोया गया है।

इन सबका गहराई से स्वाध्याय एवं चिंतन करें तो उन सब रचनाओं का भावार्थ एक ही निकलेगा कि सकारात्मक श्रद्धा (सोच), सकारात्मक अध्ययन और सकारात्मक निर्मल आचरण ही धर्म है। इस प्रकार स्पष्ट है कि सम्यक चर्या का पालन करने वाला व्यक्ति ही मोक्ष मार्ग का सच्चा राही है।

सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक चारित्र इन तीन गुणों का संयोग जिस मनुष्य के अंदर होता है, उस मनुष्य के अंदर धर्म का बीजारोपण अपने आप होने लगता है।

उसकी दिनचर्या अन्य लोगों का भी सकारात्मक मार्गदशन करती है, जबकि इससे विपरीत नकारात्मक सोच, नकारात्मक अध्ययन और मलिन आचरण अधर्म की ओर धकेलता है, जो वर्तमान और भावी जीवन को अनेक कष्टों की ओर ले जाता है। यह तीनों नकारात्मक संयोग मनुष्य के अंदर अधर्म का बीजारोपण करते हैं।

उसकी दिनचर्या दूसरों के लिए नकारात्मक मार्गदर्शन करती है। अतः तीर्थंकर भगवान की दिव्य ध्वनि के अनुरूप सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक चारित्र का पालन करना श्रावक का मूलगुण है। इसी में उसके जीवन की सार्थकता है।

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