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भगवान श्री अरहनाथ जी का मोक्ष कल्याणक: तिथि के अनुसार इस बार यह 29 मार्च को आ रहा है मोक्ष कल्याणक 


जैन धर्म में भगवान अरहनाथ जी जिन्हें अरनाथ जी के नाम से भी जाना जाता है। जिनालयों में इनके अभिषेक और पूजन के साथ भक्तिमय आराधना की जाती है। तीर्थंकर भगवानों में अरनाथ जी 18वें तीर्थंकर और 7वें चक्रवर्ती हैं। उन्होंने चैत्र कृष्ण अमावस के दिन मोक्ष प्राप्त किया था। इस बार यह तिथि के अनुसार 29 मार्च को आ रहा है। श्रीफल जैन न्यूज की विशेष श्रंखला में आज उप संपादक प्रीतम लखवाल के संयोजन में यह प्र्रस्तुति पढ़िए…


इंदौर। जैन धर्म में भगवान अरहनाथ जी जिन्हें अरनाथ जी के नाम से भी जाना जाता है। जिनालयों में इनके अभिषेक और पूजन के साथ भक्तिमय आराधना की जाती है। तीर्थंकर भगवानों में अरनाथ जी 18वें तीर्थंकर और 7वें चक्रवर्ती हैं। उन्होंने चैत्र कृष्ण अमावस के दिन मोक्ष प्राप्त किया था। इस बार यह तिथि के अनुसार 29 मार्च को आ रहा है। भगवान अरनाथ के मोक्ष कल्याणक पर देशभर में दिगंबर जैन मंदिरों में विशेष अनुष्ठान आदि किए जाएंगे। भगवान अरनाथ जी ने समवशरण का निर्माण कर संसार के लोगों को सुंदर देशना देकर राग-द्वेष पर विजय पाने का मूल मंत्र बताया। तीर्थंकर भगवान अरहनाथ जी ने कहा कि इस संसार से कौन बांधता है? राग, द्वेष और अज्ञान। अगर अज्ञान चला जाए तो राग और द्वेष भी चले जाते हैं। इसी तरह अगर राग और द्वेष पूरी तरह से चले जाएं तो अज्ञान भी चला जाता है। कुछ लोगों का अज्ञान पहले चला जाता है तो कुछ लोगों का राग और द्वेष पहले चले जाते हैं। जिनका अज्ञान पहले चला जाता है, उनका राग और द्वेष बहुत आसानी से चला जाता है और उनका मोक्ष मार्ग सरल और छोटा हो जाता है। उन्होंने अपनी देशना में कहा कि ज्ञानी पुरुष के अनुसार आसक्ति की परिभाषा आम आदमी की परिभाषा से अलग है। जब हम आत्मा की स्थिति से ‘मैं शरीर हूं’ की स्थिति में पहुंचते हैं तो उसे आसक्ति कहते हैं। सबसे पहली आसक्ति तो अपने शरीर के प्रति होती है। जब शरीर को ‘मैं’ मान लिया जाता है तो उसी क्षण से अपने आप के प्रति आसक्ति शुरू हो जाती है।

भगवान अरनाथ जी का परिचय

इस जम्बूद्वीप में सीता नदी के उत्तर तट पर एक कच्छ नाम का देश है। उसके क्षेमपुर नगर में धनपति राजा राज्य करता था। किसी दिन उसने अर्हंनंदन तीर्थंकर की दिव्य ध्वनि से धर्मामृत का पान किया। जिससे विरक्त होकर शीघ्र ही जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली। ग्यारह अंगरूपी महासागर का पारगामी होकर सोलह कारण भावनाओं द्वारा तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर लिया। अंत में प्रायोपगमन संन्यास द्वारा मरण करके जयंति विमान में अहमिंद्र पद प्राप्त किया।

भगवान का गर्भ और जन्म

इसी भरतक्षेत्र के कुरुजांगल देश में हस्तिनापुर नगरी है। यहां सोमवंश में उत्पन्न हुए काश्यप गोत्रीय राजा सुदर्शन राज्य करते थे। उनकी मित्रसेना नाम की रानी थी। रानी ने रत्नवृष्टि आदि देव सत्कार पाकर फाल्गुन कृष्ण तृतीया के दिन गर्भ में अहमिंद्र के जीव को धारण किया। उसी समय देवों ने आकर गर्भ कल्याणक महोत्सव मनाया। रानी मित्रसेना ने नव मास के बाद मगसिर शुक्ल चतुर्दशी के दिन पुष्य नक्षत्र में पुत्ररत्न को जन्म दिया। देवों ने बालक को सुमेरू पर्वत पर ले जाकर जन्माभिषेक महोत्सव करके भगवान का ‘अरनाथ’ नाम रखा। भगवान की आयु 84 हजार वर्ष की थी। तीस धनुष ऊँचा अर्थात् 130 हाथ ऊँचा शरीर था। सुवर्ण के समान शरीर की कांति थी।

भगवान अरनाथ जी का तप

भगवान के कुमार अवस्था के इक्कीस हजार वर्ष बीत जाने पर उन्हें मंडलेश्वर के योग्य राज्यपद प्राप्त हुआ। इसके बाद इतना ही काल बीत जाने पर चक्रवर्ती पद प्राप्त हुआ। इस तरह भोग भोगते हुए जब आयु का तीसरा भाग बाकी रह गया तब शरद ऋतु के मेघों का अकस्मात् विलय होना देखकर भगवान को वैराग्य हो गया। लौकांतिक देवों द्वारा स्तुत्य भगवान अपने अरविंद कुमार को राज्य देकर देवों द्वारा उठाई हुई ‘वैजयंती’ नाम की पालकी पर सवार होकर सहेतुक वन में पहुंचे। तेला का नियम कर मगसिर शुक्ला दशमी के दिन रेवती नक्षत्र में भगवान ने जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली। पारणा के दिन चक्रपुर नगर के अपराजित राजा ने भगवान को आहार दान देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किया।

केवल ज्ञान और मोक्ष

जब भगवान के छद्मस्थ अवस्था के सोलह वर्ष बीत गए। तब वे दीक्षावन में कार्तिक शुक्ल दशमी के दिन रेवती नक्षत्र में आम्रवन के नीचे तेला का नियम लेकर विराजमान हुए और घातिया कर्मों का नाशकर केवली बन गए। देवों ने आकर समवसरण की रचना करके केवल ज्ञान की पूजा की। भगवान के समवसरण में 30 गणधर, 50 हजार मुनि, 60 हजार आर्यिकाएं, 1 लाख 60 हजार श्रावक, 3 लाख श्राविकाएं असंख्यात देव-देवियां और संख्यातों तिर्यंच थे। इस तरह बारह सभाओं से घिरे हुए भगवान अरनाथ ने बीस हजार नौ सौ चौरासी वर्ष केवली अवस्था में व्यतीत किए। जब एक माह की आयु शेष रही तब भगवान सम्मेद शिखर पर जाकर प्रतिमायोग से स्थित हो गए। चैत्र कृष्ण अमावस्या के दिन रेवती नक्षत्र में रात्रि के पूर्व भाग में संपूर्ण कर्मों से रहित अशरीरी होकर सिद्धपद को प्राप्त हो गए। तीर्थंकर से पूर्व तीसरे भव में ये भगवान धनपति नाम के राजा थे। दीक्षा लेकर सोलहकारण भावनाओं के बल से तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर लिया था। पुनरू जयंत विमान में अहमिंद्र हुए, वहां से आकर अरनाथ तीर्थंकर हुए हैं। इनका मत्स्य का चिन्ह है। भगवान अरनाथ के भी गर्भ, जन्म, तप और केवल ज्ञान ये चारों कल्याणक हस्तिनापुर नगर में ही हुए हैं।

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