राजस्थान के जैन संत व्यक्तित्व और कृतित्व श्रंखला में राजस्थान की धरती पर हुए जैन संतों ने बहुत सा साहित्य रचा। वही साहित्य आज गुरु-शिष्य परंपरा का अलग महत्व प्रतिपादित कर रहा है। सभी संतों ने अपने गुरु की वंदना में गीत, रास और छंद आदि लिखे हैं। जैन धर्म के राजस्थान के दिगंबर जैन संतों पर एक विशेष शृंखला में 32वीं कड़ी में श्रीफल जैन न्यूज के उप संपादक प्रीतम लखवाल का संत श्री त्रिभुवन कीर्ति के बारे में पढ़िए विशेष लेख…..
इंदौर। राजस्थान के जैन संत व्यक्तित्व और कृतित्व श्रंखला में राजस्थान की धरती पर हुए जैन संतों ने बहुत सा साहित्य रचा। वही साहित्य आज गुरु-शिष्य परंपरा का अलग महत्व प्रतिपादित कर रहा है। राजस्थान में ऐसे ही एक और संत हुए हैं। त्रिभुवन कीर्ति। त्रिभुवनकीर्ति भट्टारक उदयसेन के शिष्य थे। उदयसेन रामसेनान्वय तथा सोमकीर्ति, कमलकीर्ति तथा यशः कीर्ति की परंपरा में से थे। जीवंधररास, जंबूस्वामीरास ये दो रचनाएं इनकी मिली हैं। जीवंधररास को कवि ने कल्पवल्ली नगर में संवत 1606 में समाप्त किया था। इस संबंध में ग्रंथ की अंतिम प्रशस्ति इस प्रकार है।
नंदीयउ गछ मझार, रामसेनान्वयि हवा।
श्री सोमकीरति, विजयसेन, कमलकीरति, यशकीरति हवउ।।
तेह पाटि प्रसिद्ध, चारित्र भार धुरंधरो।
वादीय भंजन वीर, श्री उदयसेन सूरीश्वरो।।
प्रणमीय हो गुरु पाय, त्रिभुवनकीरति इस वीनवइ।
देयो तह्म गुणग्राम अनेरो कांई वांछा नहीं।।
कल्पवल्ली मझार, संवत सोल छहोत्तरि।
रास रचउ मनोहारि,रिद्धि हयो संघह धरि।।
इस रास की प्रति जयपुर के तेरहपंथी बड़ा मंदिर के शास्त्र भंडार में एक गुटके के 129 से 151 तक संग्रहित है। प्रत्येक पत्र में 19 पंक्तियां तथा प्रति पंक्ति में 32 अक्षर है। प्रति 1643 पौष वदी 11 के दिन आसपुर शांतिनाथ चैत्यालय में लिखी गई थी। प्रति शुद्ध एवं स्पष्ट है। प्रस्तुत रास में जीवंधर का चरित्र वर्णित है। जो पूर्णतः रोमांचक घटनाओं से युक्त है। जीवंधर अंत में मुनि बनकर घोर तपस्या करते हैं और निर्वाण प्राप्त करते हैं। रचना की भाषा राजस्थानी है। जिस पर गुजराती का प्रभाव है। रास में दूहा, चौपाई, वस्तुबंध, छंद ढाल एवं रागों का प्रयोग किया गया है
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