राजस्थान के जैन संत: व्यक्तित्व एवं कृतित्व के दौर में वर्णित जानकारी के अनुसार राजस्थान में 17वीं में हुए जैन संतों का भी यहां अच्छा खासा प्रभाव रहा है। इन संतों ने साहित्य रचना के साथ-साथ धर्म प्रभावना को बढ़ाया है। इसके चलते ही यहां जैन संतों की वाणी का व्यापक असर भी देखने में आया है। जैन धर्म के राजस्थान के दिगंबर जैन संतों पर एक विशेष शृंखला में 36वीं कड़ी में श्रीफल जैन न्यूज के उप संपादक प्रीतम लखवाल का संत श्री कल्याण कीर्ति के बारे में पढ़िए विशेष लेख…..
इंदौर। राजस्थान के जैन संत: व्यक्तित्व एवं कृतित्व के अंतिम चरण में वर्णित जानकारी के अनुसार राजस्थान में बाद के समय में हुए जैन संतों का भी यहां अच्छा खासा प्रभाव रहा है। इन संतों ने साहित्य रचना के साथ-साथ धर्म प्रभावना को भी बढ़ाया है। इसके चलते ही यहां जैन संतों की वाणी का व्यापक असर भी देखने में आया है। इन्हीं संतों में से संत श्री कल्याण कीर्ति 17वीं सदी के प्रमुख जैन संत देवकीर्ति मुनि के शिष्य थे। संत श्री कल्याण कीर्ति भीलोड़ा ग्राम के निवासी थे। वहां विशाल जैन मंदिर था। इसके 52 शिखर थे और उन पर स्वण कलश सुशोभित थे। मंदिर के प्रांगण में विशाल मान स्तंभ था। इसी मंदिर में बैठकर कवि ने चारुदत्त प्रबंध की रचना की थी। रचना संवत 1952 आसोज शुक्ल पंचमी को समाप्त हुई थी। कवि ने रचना का नाम चारुदत्त भी दिया है। इसकी एक प्रति जयपुर के दिगंबर जैन मंदिर पाटोदी के शास्त्र भंडार में संग्रहित है। प्रति संवत 1733 की लिखी हुई है। कवि को एक ओर रचना ‘लघु बाहुबलि बेल’ तथा कुछ स्फुट पद भी मिले हैं। इसमें कवि ने अपने गुरु के रूप में शांतिदास के नाम उल्लेख किया है। यह रचना भी अच्छी है। इसमें त्रोटक छंद का उपयोग हुआ है। यहां देखने में आता है कि अधिकांश संतों ने 17वीं सदी में अधिक साहित्य की रचना की। इसके माध्यम से जनजागरण में भी मदद मिली।
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