राजस्थान की धरती पर जिन जैन संतों ने अपने साहित्य के माध्यम से संयम, नियम और धर्म के प्रति जनमानस में अलख जगाई है। उसी का प्रतिफल है कि जैन धर्म और भगवान तीर्थंकरों का गुणानुवाद जन-जन तक पहुंचा। भट्टारक विद्यानंदी के शिष्य ब्रह्म अजित जी ने राजस्थानी के अलावा हिंदी में भी रचना की है। आज जैन धर्म के राजस्थान के दिगंबर जैन संतों पर एक विशेष शृंखला में 34वीं कड़ी में श्रीफल जैन न्यूज के उप संपादक प्रीतम लखवाल का संत ब्रह्म अजितजी के बारे में पढ़िए विशेष लेख…..
इंदौर। ब्रह्म अजित संस्कृत के अच्छे विद्वान थे। ये गोल श्रंगार जाति के श्रावक थे। इनके पिता का नाम वीरसिंह एवं माता का नाम पीथा था। ब्रह्म अजित भट्टारक सुरेंद्रकीर्ति के प्रशिष्य एवं भट्टारक विद्यानंदी के शिष्य थे। ये ब्रह्मचारी थे और इसी अवस्था में रहते हुए इन्होंने भृगुकच्छपुर (भडोच) के नेमिनाथ चैत्यालय में हनुमच्चरित की समाप्ति की थी। इस चरित की एक प्राचीन प्रति आमेर शास्त्र भंडार जयपुर में संग्रहित है। हनुमच्चरित में 12 सर्ग हैं और यह अपने समय का काफी लोकप्रिय काव्य रहा है। ब्रह्म अजित एक हिन्दी रचना हंसा गीत भी प्राप्त हुई है। यह एक उपदेशात्मक अथवा शिक्षाप्रद कृति है। जिसमें ‘हंस’ आत्मा को संबोधित करते हुए 37 पद्य है। संत ब्रह्म अजित 17वीं शताब्दी के संत थे।
रचना की समाप्ति कवि ने इस प्रकार की हैः-
रास हंस तिलक एह, जो भावई दृढ चित्त रे हंसा।
श्री विद्यानंदी उपदेसिउ, बोलि ब्रह्म अजित रे हंसा।
ळंसा तू करि संयम, जम न पड़ि संसार रे हंसा।
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