आज समय है, बंधन से परे वन्दन का।
क्योंकि …
बंधन में गांठ भी है और मोह भी।
वन्दन में गरिमा भी है और आदर भी
बीते 5 दिन के हर पल, एक ऐसी दुनिया में बीते जहां लोग रक्षा के लिए समर्पित थे। बात चिकित्सालय की है। सरकारी अस्पताल की।
एक ऐसी दुनिया, जहाँ हजारों लोग हैं। पर उन्हें सिर्फ दो वर्ग में बांटा जा सकता है। रोगी और सहयोगी। रोगी कम हैं और सहयोगी ज्यादा। शायद करुणा और दया के भाव मे ही प्रेम है और उसी से दुनिया चल रही है।
अस्पताल में हर सहयोगी – एक सैनिक की भूमिका में है। मुझे तो लगा कि सेना और चिकित्सा विभाग मूल रूप से काफी समान हैं। दोनों के भावुक योद्धा आगे की पंक्ति हैं। चतुर खिलाड़ी पीछे की पंक्ति में। वैसे भी हम जिस समय में जी रहे हैं, उसमें सर्विस इंडस्ट्री का बोलबाला है।
यानी सेवा उद्योग।
यह एक ऐसा क्षेत्र है जिसमे सेवक आगे रहते हैं और महंत पीछे। प्रसाद महंत ही बांटते हैं। प्रभु की लीला महान है जिसे प्रसाद चाहिए, उसे प्रसाद देता है वो भी उसी के हाथों से जिसे पद चाहिए।
खैर … बात अस्पताल के सहयोगियों की है। यहां कोई दवा लिख रहा है, कोई दे रहा है, कोई ला रहा है। पर एक सहयोगी ऐसा भी है, जो उस कचरे और गंदगी को उठा रहा है जिसे (डस्टबिन) कचरापात्र में डालकर ही हम जेंटलमेन बन जाते हैं। यह सहयोगी खून से संधे डस्टबिन, मल मूत्र और हर उस गंदगी को साफ कर रहा है जिसे हम इन्फेक्शन का कारण मानते हैं।
वो भी हंसते और गुनगुनाते। मानों रक्षा वन्दन कर रहा हो।
आज के युग में समता भाव का इससे बड़ा उदाहरण क्या होगा।
कुछ लोग इसे मजबूरी कह सकते हैं। पर मैं तो यह कह कर इस महान कार्य को छोटा नहीं कर सकता।
मैं तो इसे…
इन सहयोगियों का बड़प्पन कहूंगा।
समता भाव कहूँगा।
धर्म के प्रति आस्था कहूंगा।
इनके सहयोग के लिए इतना जरूर कहूंगा कि
स्वच्छ्ता तक सीमित मत रहिये
स्व – अच्छता को अपनाइए ।
इसके लिए आपको व्यर्थ से बचना होगा ।
कचरा कम हो – इस व्यवस्था पर जाना चाहिए।
यदि कचरा ज्यादा होगा तो
जिंदगी कचरे में निकलेगी या फिर सफाई में। जैन धर्म में कचरे को कम करने का सटीक सूत्र दिया है- वो है अपरिग्रह। मतलब – व्यर्थ से बचो। क्षेत्र चाहे कोई हो।
आइए इस रक्षा बंधन से पहले
रक्षा वन्दन करें।
स्व अच्छता से जुड़ें।
कचरा कम करें।