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धर्म के बिना कोई भी आत्मा सुखी नहीं - मुनि अपूर्व सागर पंच परमेष्ठी के मन में रहता है धर्म 


अन्याय और अधर्म इस लोक के साथ ही परलोक में भी दुख देने वाले हैं।धर्म के बिना इंसान चलती फिरती लाश के समान है । धर्म को ज्ञानी लोगों ने संचय किया है। धर्म को प्राप्त करने के लिए उसे नमस्कार करते हैं। जो जिसे प्राप्त करना चाहता है, उसकी भक्ति करता है, नमन करता है। ये विचार वात्सल्य वारीधि आचार्य श्री वर्द्धमान सागर जी महाराज के शिष्य मुनि श्री अपूर्व सागर जी महाराज ने व्यक्त किए। पढ़िए अशोक कुमार जेतावत की रिपोर्ट …… 


धरियावद । धर्म के बिना कोई भी आत्मा सुखी नहीं हो सकती है। अन्याय और अधर्म इस लोक के साथ ही परलोक में भी दुख देने वाले हैं। धर्म को ज्ञानी लोगों ने संचय किया है। धर्म को प्राप्त करने के लिए उसे नमस्कार करते हैं। जो जिसे प्राप्त करना चाहता है, उसकी भक्ति करता है, नमन करता है। ये विचार वात्सल्य वारीधि आचार्य श्री वर्द्धमान सागर जी महाराज के शिष्य मुनि श्री अपूर्व सागर जी महाराज ने व्यक्त किए। श्री चंद्रप्रभु दिगंबर जैन मंदिर में धर्मसभा को संबोधित करते हुए मुनिश्री ने सोमवार को कहा कि धर्म भी एक प्रकार का देव है। अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, जिनधर्म, जिनागम, जिन चैत्य, जिन चैत्यालय, इन्हें नवदेवता कहा गया है। धर्म मन में होता है, वचन और काय में नहीं होता। पंच परमेष्ठी के मन में धर्म रहता है, इसलिए वे हमारे लिए पूज्य हैं। मुनिश्री ने बताया कि रत्नत्रय ही धर्म है। निश्चय रत्नत्रय और व्यवहार रत्नत्रय के दो भेद ग्रंथों में कहे गए हैं। व्यवहार रत्नत्रय से निश्चय रत्नत्रय की प्राप्ति नहीं होती है, तब तक धर्म पूर्ण नहीं होता है। सामायिक, प्रतिक्रमण, साधना, गुप्ति पालन, समिति पालन आदि व्यवहार रत्नत्रय हैं।

धर्म के बिना इंसान चलती फिरती लाश 

सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक चारित्र को आत्मा में धारण करना , आत्मतत्व का चिंतन करना, परिणाम शुद्ध बनाए रखना, वीतराग स्वभाव की प्राप्ति करना निश्चय रत्नत्रय हैं। मुनिश्री कहा कि जिसमें सम्यक दर्शन-ज्ञान-चारित्र का भेद नहीं है, अभेदरूप परिणति है, उसको निश्चय या अभेद रत्नत्रय कहते हैं। भेद रूप रत्नत्रय के पालन को व्यवहार में रत्नत्रय कहते हैं। आचार्यों ने कहा है कि सम्यक दर्शन के साथ नरक में रहना अच्छा है, लेकिन धरती एवं स्वर्ग में भी सम्यक दर्शन के बिना नहीं रहना चाहिए। धर्म को स्थिर रखने के लिए पूजा-पाठ करते हैं। धर्म को दृढ़ करने के लिए गुरुओं को दान देते हैं, उनकी सेवा करते हैं। ताकि हमारा सम्यक दर्शन छूटे नहीं। धर्मसभा मनोरंजन का स्थान नहीं है, आत्मरंजन की जगह है। धर्म के साथ छोटा जीवन जीना अच्छा है, लेकिन इसके बाद करोड़ों साल जीना व्यर्थ है। धर्म के बिना प्राणी संसार में चलती फिरती लाश के समान है।

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