निर्यापक मुनिपुंगव श्री सुधासागर जी महाराज ने 27 नवंबर बुधवार को प्रवचन में कहा कि संसार में रहकर यदि हमें जीना है तो हमें समीकरण का ध्यान रखना पड़ेगा। जब-जब हम किसी उपकारी वस्तु का शोषण करते हैं तब-तब हमारा समीकरण बिगड़ेगा और सारे संसार का समीकरण बिगड़ने का मूल कारण है कि हर व्यक्ति दुनिया की हर वस्तु को यूज एंड थ्रो कर रहा है। पढ़िए राजीव सिंघई की रिपोर्ट…
इस दुनिया में प्रकृति ने सभी द्रव्यों का ऐसा समीकरण बैठाला है कि ये समीकरण संयुक्त रूप में रहता है, तब यह प्रकृति हमारे लिए अनुकूल बन जाती है और जब समीकरण बिगड़ता है तो परिस्थितियाँ हमारे प्रतिकूल हो जाती हैं। संसार में रहकर यदि हमें जीना है तो हमें समीकरण का ध्यान रखना पड़ेगा। जब-जब हम किसी उपकारी वस्तु का शोषण करते हैं तब-तब हमारा समीकरण बिगड़ेगा और सारे संसार का समीकरण बिगड़ने का मूल कारण है कि हर व्यक्ति दुनिया की हर वस्तु को यूज एंड थ्रो कर रहा है।
मानववादी दृष्टिकोण पाश्चात्य सभ्यता कहलाता है
अग्नि, जल, पृथ्वी, वायु, परिवार, गुरु, भगवान, णमोकार मंत्र, मंदिर सबकुछ हमारे लायक है, बस इसी का नाम विज्ञान है, विज्ञान उस वस्तु की खोज कर रहा है जो मनुष्यों के लायक हो। विज्ञान मानववादी है जो कहता है कि हमें जिस वस्तु से, जैसे लाभ मिले, वैसे लो और यही दृष्टिकोण एक दिन इस सृष्टि का विनाश करेगा क्योंकि मानववादी दृष्टिकोण में व्यक्ति इतना स्वार्थी हो जाता है उसे मैं के अलावा कुछ दिखता ही नहीं। वह व्यक्ति तुमसे तभी बात करेगा, जब उसे तुमसे कुछ मिलेगा, ये मानववादी दृष्टिकोण पाश्चात्य सभ्यता कहलाता है क्योंकि यह विचार तो पशुओं, पेड़ पौधों में भी होता है। पेड़-पौधे भले फल देते हैं लेकिन देना का उनका भाव नहीं होता। हवायें चलती है लेकिन किसी को जिंदा रखने का भाव नहीं होता, अग्नि जलती है लेकिन अंधेरा मिटाने का भाव नहीं होता, पानी शीतल है लेकिन प्यास बुझाने का भाव नहीं होता। लोग दीप जला लेते हैं, हवाये ऑक्सीजन में परिवर्तित हो जाती है लेकिन उनके अंदर कोई परिणाम नहीं आता। उनको मात्र इतना सा ज्ञान है कि मुझे कहां से आहार, भय, मैंथुन और परिग्रह, ये चार संज्ञाओं की पूर्ति करना है, और इन्हें जब जब बढ़ावा मिलेगा, तब तब इस सृष्टि का विनाश होगा।
पुरुषार्थ व संज्ञाओं में अंतर है
धर्म का अर्थ यह नहीं है कि सारी इच्छाओं को खत्म कर देना, संज्ञाओं की पूर्ति पुरुषार्थ से करो। पुरुषार्थ व संज्ञाओं में अंतर है, आहार की इच्छा व आहार लेने का पुरुषार्थ, विषय भोगों को भोगने की इच्छा व काम पुरुषार्थ करना, इनमें बहुत अंतर है। यदि तुम्हें आहार की इच्छा हो रही है और आहार खोज रहे हो तो निंदनीय है, पशु हो, यही संज्ञा तुम्हारी जिंदगी का नाश कर देगी। ऋषभदेव ने अर्थ की पूर्ति नहीं, अर्थ का पुरुषार्थ बताया और जब-जब हमें अर्थ पुरुषार्थ का परिणाम जागेगा, आप इतने दयालु हो जाएंगे, इतने मेहनती हो जायेगे कि आप, आपका परिवार व पूरा राष्ट्र दिन दूना, रात चौगुना बढता ही जाएगा। खाना तो हमने सीखा है लेकिन उसके लिए जो पुरुषार्थ चाहिए है, उसे करने में कतराते है।
जब-जब व्यक्ति पुरुषार्थ पर आता है तो मानवतावादी हो जाता है
ऋषभदेव चाहते तो कल्पवृक्षों से सभी की आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकते थे, भरत चक्रवर्ती के पास अक्षय निधियां थी, जनता के लिए उपयोग कर सकते थे लेकिन उन्होंने उपदेश दिया कि तुम पुरुषार्थ करो, आहार संज्ञा की पूर्ति भीख से मत करो किस्मत से मत करो, कर्म के भरोसे करो, पुरुषार्थ से करो और जब-जब व्यक्ति पुरुषार्थ पर आता है तो मानवतावादी हो जाता है। विज्ञान मानववादी है और धर्म मानवतावादी। तुम्हारे मन में मानववाद पनपता है तो तुम इस सृष्टि की ऐसी दशा कर दोगे कि वह तुम्हारे काम के लायक भी नहीं रहेगी, जिसको पापी कहते है। यह हवाएं तुम्हारे लिए थी लेकिन आज इन हवाओं को इतना जहरीला कर दिया कि मास्क लगाने की नौबत आ गया। यह नदियां आपके लिए थी, अपने नदियों का जल इतना गंदा कर दिया कि पीना तो छोड़ो, छूने लायक भी नहीं रहा।
विज्ञान का एक ही दृष्टिकोण है मनुष्य को जो चाहिए वह मिलना चाहिए
जब-जब तुम्हें देखते ही भाव आए यह मेरे काम का है या नहीं तो समझ लेना तुम्हारा विनाश निश्चित है और जिसे तुम देख लोग उसका भी विनाश निश्चित है। आप सुनते और बात भी इसलिए करते हो कि ये मेरे काम की बात है, आप इसलिए चल रहे कि वहाँ पर काम है तो समझ लेना तुम पशु हो और इसी तरह विज्ञान का एक ही दृष्टिकोण है मनुष्य को जो चाहिए वह मिलना चाहिए।
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