अंतर्मुखी मुनि श्री पूज्य सागर महाराज के 9वें दीक्षा दिवस पर श्रीफल जैन न्यूज में उन्हीं की कलम से उनकी जीवनगाथा प्रस्तुत की जा रही है। पाठकों को इस लेखनमाला की एक कड़ी हर रोज पढ़ने को मिलेगी, आज पढ़िए इसकी नवीं कड़ी….
9. धार्मिक शिक्षा की राह पर
वर्ष 1998 के फरवरी माह में मैं बिजौलिया शहर में ही था। आचार्य श्री वर्धमान सागर जी महाराज ने धर्म का पहला भाग जैन बाल बोध पढ़ाना शुरू किया। यह णमोकार मंत्र से प्रारम्भ होता था, उसके बाद तीर्थंकरों के नाम, उनके चिह्न, जीव-अजीव सहित धर्म के प्रारंभिक जानकारी थी। आचार्य श्री रोज आधा घंटा पढ़ाते थे । मैं तो अपने आप को भाग्यशाली मानता था कि एक आचार्य मुझे पढ़ा रहे हैं। आचार्य श्री का कुछ पढ़ाया हुआ समझ नहीं आता था तो माता जी (आर्यिका वर्धित मति माता जी) से पूछ लेता था। माता उसे फिर से समझा देती थीं।
आचार्य श्री पढ़ाते थे तो वैसे भी एक बार में समझ नहीं आता था क्योंकि यह सब हमने पहले कभी पढ़ा नहीं था। मेरे लिए सब कुछ नया था। आचार्य श्री और माता जी बार-बार एक ही पाठ या विषय को समझाते थे तो धीरे- धीरे समझ में आने लग गया। आचार्य श्री आज्ञा से मैं माता जी से भी जैन धर्म के बारे में कुछ न कुछ पढ़ने लगा। दोनों गुरु पढ़ाने लगे लेकिन मैं कोई न कोई बहाना बनाकर पढ़ाई से बचना ही चाहता था क्योंकि समझ में कम आता था और जब आचार्य श्री और माता जी पूछते थे कि जो पढ़ाया है, उसमें से कुछ बताओ और मैं नहीं बता पाता था तो लगता था मेरा अपमान हो गया है।
जब पढ़ने नहीं जाता था तो आचार्य किसी न किसी को बुलाने भेज देते थे कि पढ़ाई का समय हो गया है। माता जी अलग से कहती थीं कि तुम खुद क्यों नहीं जाते आचार्य श्री के पास। उन्हें बुलाना पड़ता है पढ़ाई के लिए। यह तुम्हारा सौभाग्य है कि स्वयं आचार्य श्री तुम्हें पढ़ा रहे हैं। जो भी आचार्य श्री पढ़ाते थे तो मैं उसे याद करने की कोशिश करता था, लेकिन पूरा दिन पढ़ने के बाद भी वह याद नहीं रहता था।आचार्य श्री ने तो पढ़ाना णमोकार मंत्र से ही शुरू किया था लेकिन वह भी याद नहीं होता था । मुझे याद करवाने में माता जी बहुत मेहनत करती थीं। आचार्य श्री के आशीर्वाद और माता जी मेहनत से मुझे पढ़ने में धीरे-धीरे आनंद आने लगा और फिर याद भी होने लगा।
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