अंतर्मुखी मुनि श्री पूज्य सागर महाराज के 9वें दीक्षा दिवस पर श्रीफल जैन न्यूज में उन्हीं की कलम से उनकी जीवनगाथा प्रस्तुत की जा रही है। पाठकों को इस लेखनमाला की एक कड़ी हर रोज पढ़ने को मिलेगी, आज पढ़िए इसकी तीसरी कड़ी….
3. संघ में प्रवेश
फरवरी का महीना था, जब हम बिजौलिया पहुंचे थे। रात को मैं पहली बार साधुओं के साथ उन्हीं के कमरे में सोया था। सभी साधु घास और चटाई लेकर सो रहे थे। मैं भी एक चटाई पर सो गया और ओढ़ने को एक चादर थी लेकिन मुझे ठंड बहुत लग रही थी। तब आचार्य श्री वर्धमान सागर महाराज ने पांवों पर घास रखवा दी। सुबह नींद खुली तो देखा कि पांव में घास है और सारे साधु बैठकर अपना प्रतिक्रमण, सामायिक कर रहे हैं। पूरे संघ का वात्सल्य, प्यार उस दिन मुझे भरपूर मिला। सब यही पूछ रहे थे कि भोजन आदि की व्यवस्था अच्छे से हो गई या नहीं । उस समय संघ में दीक्षार्थी विजय और राजू भाई के अलावा कोई ब्रह्मचारी नहीं था। आचार्य श्री ने भी पूछा कि कोई असुविधा तो नहीं है और अगर हो तो निसंकोच बता देना। यह मेरा पहला दिन था संघ में लेकिन मैं ऐसा कोई ऐसा मानस बनाकर नहीं आया था कि मुझे संघ में रहना है लेकिन मुझे ऐसा लगा कि संघ में सब को उम्मीद है कि मैं संघ में रहने के लिए आया हूं।
भैया विजय और राजू के साथ मेरे गांव से एक मनोज जैन नाम का शख्स और भी आया था, उसे संघ में रहना था। हम दो हो गए थे। वह मुझ से भी छोटा था और मैं भी उस समय 18 साल के लगभग था। उसे भी बहुत प्यार, स्नेह मिला। हम दोनों को देखकर सब यही कह रहे थे कि विजय और राजू भैया की दीक्षा हो रही है तो यह दो भैया उनकी जगह आ गए हैं। उधर मेरा मन तो अंदर से कुछ और कह रहा था कि दीक्षा होते ही घर जाना है। संघ में 7-8 दीदियां थीं। उनसे भी स्नेह मिला। पहली बार उस दिन आचार्य श्री के साथ आहारचर्या के लिए गया लेकिन आचार्य श्री और संघ में कोई आहार लेता नहीं था क्योंकि शुद्ध जल का त्याग करने वाला ही आहार दे सकता था। फिर आहार के बाद कुल्ला करवाने और पिच्छी देने का अवसर मिला। संघ में सब से स्नेह मिला। पहले दिन उससे मुझे भी खुशी मिली। विजय और राजू भैया मुझ से ज्यादा ध्यान मनोज पर दे रहे थे क्यों उसे तो संघ में रहना है, यह पक्का था। मेरा तो कुछ तय ही नहीं था। मुझे भी बुरा नहीं लग रहा था क्योंकि मुझे तो घर जाना ही था।
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