राजस्थान की धरती पर संतों ने जन्म लेकर केवल इसी धरती पर नहीं वरन कई-कई प्रांतों में विहार कर आध्यात्मिक चेतना, जीव और भगवान के बीच के संबंध को जानने का धर्म मार्ग प्रशस्त किया। उन्होंने स्पष्ट किया है कि अनादिकाल से यह जीव जड़ को अपना हितैषी समझता आ रहा है। इस कारण ही जगत के चक्कर में पड़ता है। आचार्यश्री बूचराज जी जैन दर्शन के पुद्गल एवं चेतन के संबंध से परिचित थे। जीव और जड़ के इस संबंध की पोल चेतन पुद्गल धमाल में कवि ने खोल कर रख दी है। जैन धर्म के राजस्थान के दिगंबर जैन संतों पर एक विशेष शृंखला में छठवीं कड़ी में श्रीफल जैन न्यूज के उप संपादक प्रीतम लखवाल का आचार्य श्री बूचराज के बारे में पढ़िए विशेष लेख…..
इंदौर। रूपक काव्यों के निर्माता ब्रह्म बूचराज हिन्दी साहित्य के प्रतिष्ठित कवि हैं। इनकी एक रचना मयण जुज्झ (मदन युद्ध )इतनी अधिक लोकप्रिय रही कि राजस्थान के कितने ही भंडारों में उसकी प्रतिलिपियां उपलब्ध है। इनकी सभी कृतियां उच्च स्तर की हैं। आचार्य श्री बूचराज भट्टारक विजयकीर्ति के शिष्य थे। इसलिए उनकी प्रशंसा में उन्होंने विजयकीर्ति गीत लिखा। श्री बूचराज राजस्थानी विद्वान थे।
जन्म और परिवार परिचय उपलब्ध नहीं
आचार्यश्री बूचराज ने अपनी किसी भी कृति में अपने जन्म, स्थान और माता-पिता आदि का परिचय नहीं दिया है। इन रचनाओं की भाशा के आधार पर भट्टारक श्री विजयकीर्ति जी के शिष्य होने के चलते इन्हें राजस्थानी विद्वान माना गया। वैसे ये संत थे। ब्रह्मचारी पद इन्होंने धारण कर लिया था। इसलिए धर्म प्रचार, साहित्य प्रचार की दृष्टि से ये उत्तरी भारत में विहार करते थे। राजस्थान, पंजाब, दिल्ली, गुजरात इनके मुख्य प्रदेश थे। संवत 1591 में ये हिसार में थे और उस वर्ष वहीं चातुर्मास किया था। इसलिए 1591 की भादवा शुक्ल पंचमी के दिन इन्होंने संतोष जय तिलक को पूर्ण किया था। संवत 1582 में वे चंपावती (चाटसू) में और इस वर्ष फाल्गुन सुदी 14 के दिन इन्हें सम्यकत्व कौमुदी की प्रतिलिपि भेंट स्वरूप प्रदान की गई थी। इन्होंने अपनी कृतियों में बूचराज के अतिरिक्त बूचा, वल्ह, वील्ह अथवा वल्हव नामों का उपयोग किया।
समय के बारे में अनिश्चय
कविवर के समय के बारे में निश्चित नहीं है, लेकिन इनकी रचनाओं के आधार पर इनका समय संवत 1530 से 1600 तक माना जा सकता है। इस तरह उन्होंने अपने जीवन काल में भट्टारक श्री भुवनकीर्ति, भट्टारक श्री ज्ञानभूषण एवं विजयकीर्ति का समय देखा होगा। इनके सानिध्य में रहकर बहुत कुछ सीखने का अवसर भी प्राप्त किया होगा। वे गृहस्थावस्था के बाद संवत 1575 के आसपास ब्रह्मचारी बने होंगे तथा उसके बाद इनका ध्यान साहित्य रचना की ओर गया होगा। मयण जुज्झ इनकी प्रथम रचना है। जिसमें उन्होंने भगवान आदिनाथ द्वारा कामदेव पर विजय प्राप्त करने के रूप में संभवतः स्वयं के जीवन का भी उदाहरण प्रस्तुत किया है।
श्री बूचराज की प्रमुख कृतियां
मयण जुज्झ (मदन युद्ध), संतोष तिलक, चेतन पुदगल धमाल, टंडाणा गीत, नेमिनाथ वसंतु, नेमीश्वर का बाहरमासा, विभिन्न रागों में लिखे हुए आठ पद, विजयकीर्ति गीत।
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