उत्तम आकिंचनता धर्म का अभ्यास व्यक्ति को आत्मिक संतुलन, शांति और जीवन की गहरी समझ की ओर ले जाता है। यह भौतिकता के पार जाकर एक अधिक स्थायी और आंतरिक सुकून की खोज करने की प्रेरणा देता है। पढ़िए मुनि श्री पूज्य सागर महाराज का विशेष आलेख…
दसलक्षण धर्म का नवां कदम है आकिंचन्य धर्म। आकिंचन्य धर्म आत्मा की उस दशा का नाम है जहां पर बाहरी सब छूट जाता है किंतु आंतरिक संकल्प विकल्पों की परिणति को भी विश्राम मिल जाता है। बाहरी परित्याग के बाद भी मन में ‘मैं’ और ‘मेरे पन’ का भाव निरंतर चलता रहता है, जिससे आत्मा बोझिल होती है और मुक्ति की ऊर्ध्वगामी यात्रा नहीं कर पाती। परिग्रह का परित्याग कर परिणामों को आत्मकेंद्रित करना ही अकिंचन धर्म माना गया है। आकिंचन्य यानि त्याग करना, छोड़ने का दिन। मैं और मेरा का त्याग करना ही आकिंचन्य धर्म है। घर लौटने का नाम भी आकिंचन्य कहा गया है। घर से मतलब आत्म में लौटना। इसे थोडा यूं समझें कि आप सांप सीढ़ी के अंतिम पायदान 98 पर पहुंच गए। यहां से 99 पर गए तो यहां से गिरे तो जहां से यात्रा शुरू की थी वही पहुंच जाएंगे और 100 पर गए तो विजेता हो जाएंगे। अपने अंतर्मन में झांककर आत्मा की आवाज सुनते हुए त्याग करना सही मायने में इस धर्म को जीना है। आकिंचन्य धर्म की भावना करो कि यह आत्म शरीर से भिन्न है, ज्ञानमयी है, उपमा रहित है, वर्ण रहित है, सुख संपन्न है, परम उत्कृष्ट है, अतींद्रिय है और भयरहित है। इस प्रकार से आत्मा का ध्यान करो, यही आकिंचन्य है।
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