तेइसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ जी का ज्ञान कल्याणक चैत्र कृष्ण चतुर्थी के दिन हुआ था। इस दिन उन्हें कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। इस दिन को पूरे देश में पूरी श्रद्धा भक्ति और आनंद के साथ उनका ज्ञान कल्याणक मनाया जाता है। इस मंदिरों में अभिषेक, शांतिधारा, विधान आदि के कार्यक्रम कर पुण्य अर्जित किया जाता है। श्रीफल जैन न्यूज की विशेष श्रंखला में यह उपसंपादक प्रीतम लखवाल के संयोजन में पढ़िए…
भगवान पार्श्वनाथ जैन धर्म के तेइसवें तीर्थंकर हैं। भगवान पार्श्वनाथ जी का ज्ञान कल्याणक चैत्र कृष्ण चतुर्थी के दिन हुआ था। इस दिन उन्हें कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। यह घटना उनके जीवन में एक महत्वपूर्ण मोड़ थी, जिसने उन्हें जैन धर्म के 23वें तीर्थंकर के रूप में स्थापित किया। काशी में 83 दिन की कठोर तपस्या करने के बाद 84 वें दिन उन्हें केवल ज्ञान प्राप्त हुआ था। पुंड़्र, ताम्रलिप्त आदि अनेक देशों में उन्होंने भ्रमण किया। ताम्रलिप्त में उनके शिष्य हुए। पार्श्वनाथ ने चतुर्विध संघ की स्थापना की। इसमें श्रमण, श्रमणी, श्रावक, श्राविका होते हैं और आज भी जैन समाज इसी स्वरूप में है। प्रत्येक गण एक गणधर के तहत कार्य करता था। सभी अनुयायियों, स्त्री हो या पुरुष सभी को समान माना जाता था। सारनाथ जैन-आगम ग्रंथों में सिंहपुर के नाम से प्रसिद्ध है। यहीं पर जैन धर्म के 11वें तीर्थंकर श्रेयांसनाथ जी ने जन्म लिया था और अपने अहिंसा धर्म का प्रचार-प्रसार किया था। केवल ज्ञान के बाद तीर्थंकर पार्श्वनाथ ने जैन धर्म के चार मुख्य व्रत सत्य, अहिंसा, अस्तेय और अपरिग्रह की शिक्षा दी थी।
भगवान पार्श्वनाथ ने कहाः-‘दयाहीन धर्म किसी काम का नहीं।’
जैन ग्रंथों के अनुसार वर्तमान में काल चक्र का अवरोही भाग, अवसर्पिणी गतिशील है और इसके चौथे युग में 24 तीर्थंकरों का जन्म हुआ था। भगवान् पार्श्वनाथ का जन्म वाराणसी के भेलूपुर में हुआ था। तीर्थंकर पार्श्वनाथ का जन्म आज से लगभग 2 हजार 9 सौ वर्ष पूर्व वाराणसी में हुआ था। वाराणसी में अश्वसेन नाम के इक्ष्वाकुवंशीय क्षत्रिय राजा थे। उनकी रानी वामा ने पौष कृष्ण एकादशी के दिन महा तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया। जिसके शरीर पर सर्प चिन्ह था। वामादेवी ने गर्भकाल में एक बार स्वप्न में एक सर्प देखा था। इसलिए पुत्र का नाम ‘पार्श्व’ रखा गया। उनका प्रारंभिक जीवन राजकुमार के रूप में व्यतीत हुआ। एक दिन पार्श्व ने अपने महल से देखा कि पुरवासी पूजा की सामग्री लिए एक ओर जा रहे हैं। वहां जाकर उन्होंने देखा कि एक तपस्वी जहां पंचाग्नि जला रहा है और अग्नि में एक सर्प का जोड़ा मर रहा है तब पार्श्व ने कहाः-‘दयाहीन धर्म किसी काम का नहीं।’ तीर्थंकर पार्श्वनाथ ने तीस वर्ष की आयु में घर त्याग दिया था और जैन दीक्षा ली।
सम्मेद शिखरजी पर हुआ निर्वाण
अपना निर्वाणकाल समीप जानकर श्री सम्मेद शिखरजी (पारसनाथ की पहाड़ी जो झारखंड में है) पर चले गए। जहां श्रावण शुक्ल सप्तमी को उन्हे मोक्ष की प्राप्ति हुई। भगवान पार्श्वनाथ की लोक व्यापकता का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि आज भी सभी तीर्थंकरों की मूर्तियों और चिन्हों में पार्श्वनाथ का चिन्ह सबसे ज्यादा है। आज भी पार्श्वनाथ की कई चमत्कारिक मूर्तियां देशभर में विराजित हैं। जिनकी गाथा आज भी पुराने लोग सुनाते हैं।
भगवान पार्श्वनाथ का पूर्वजन्म
जैन ग्रंथों में तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ के नौ पूर्व जन्मों का वर्णन है। पहले जन्म में ब्राह्मण, दूसरे में हाथी, तीसरे में स्वर्ग के देवता, चौथे में राजा, पांचवें में देव, छठवें जन्म में चक्रवर्ती सम्राट और सातवें जन्म में देवता, आठ में राजा और नौवें जन्म में राजा इंद्र (स्वर्ग) के बाद दसवें जन्म में उन्हें तीर्थंकर बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। पूर्व जन्मों के संचित पुण्यों और दसवें जन्म के तप के फलस्वरूप तीर्थंकर बनें।
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