जैन धर्म के तेइसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ जी का गर्भ कल्याणक वैशाख कृष्ण द्वितीया को धार्मिक उल्लास के साथ मनाया जाएगा। दिगंबर जैन मंदिरों में अभिषेक, शांतिधारा, विधान आदि के कार्यक्रम पांरपरिक रूप से आयोजित किए जाएंगे। इस बार यह गर्भ कल्याण 15 अप्रैल को मनाया जाएगा। भगवान पार्श्वनाथ के गर्भ कल्याण से जुड़ी जानकारी श्रीफल जैन न्यूज की विशेष श्रंखला में उपसंपादक प्रीतम लखवाल के संयोजन में पढ़िए…
इंदौर। तेइसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ का गर्भ कल्याण इस बार 15 अप्रैल को है। इस दिन वैशाख कृष्ण द्वितीया है। इसी दिन भगवान ने अपनी माता के गर्भ में अवतरण लिया था। इस दिवस को पूरे भारत वर्ष में भगवान पारसनाथ जी के मंदिरों में धूमधाम से बनाया जाएगा। दिगंबर जैन मंदिरों में अभिषेक, शांतिधारा सहित विविध आयोजन कर जैन समाज के श्रावक-श्राविकाएं पुण्यलाभ अर्जित करेंगे। इस दिन दिनभर भगवान की भक्ति आराधना की जाएगी। जैन धर्म ग्रंथों के अनुसार काशी में 83 दिन की कठोर साधना और तप के बाद 84 वें दिन उन्हें केवल ज्ञान मिला था। पुंड़्र, ताम्रलिप्त आदि अनेक देशों में उन्होंने भ्रमण किया। ताम्रलिप्त में उनके शिष्य हुए। पार्श्वनाथ ने चतुर्विध संघ की स्थापना की। इसमें श्रमण, श्रमणी, श्रावक, श्राविका होते हैं और आज भी जैन समाज इसी स्वरूप में है। प्रत्येक गण एक गणधर के तहत कार्य करता था। सभी अनुयायियों, स्त्री हों या पुरुष सभी को समान माना जाता था। तीर्थंकर पार्श्वनाथ ने जैन धर्म के चार मुख्य व्रत सत्य, अहिंसा, अस्तेय और अपरिग्रह की शिक्षा दी थी।
वामादेवी ने गर्भकाल में एक बार स्वप्न में सर्प देखा था
जैन ग्रंथों के अनुसार वर्तमान में काल चक्र का अवरोही भाग, अवसर्पिणी गतिशील है और इसके चौथे युग में 24 तीर्थंकरों का जन्म हुआ था। भगवान् पार्श्वनाथ का जन्म वाराणसी के भेलूपुर में हुआ था। तीर्थंकर पार्श्वनाथ का जन्म लगभग 2 हजार 9 सौ वर्ष पूर्व वाराणसी में हुआ था। वाराणसी में अश्वसेन नाम के इक्ष्वाकु वंशीय क्षत्रिय राजा थे। उनकी रानी वामा ने पौष कृष्ण एकादशी के दिन महा तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया। जिसके शरीर पर सर्प चिन्ह था। वामादेवी ने गर्भकाल में एक बार स्वप्न में सर्प देखा था। इसलिए पुत्र का नाम ‘पार्श्व’ रखा गया। उनका प्रारंभिक जीवन राजकुमार के रूप में बीता। एक दिन पार्श्व ने महल से देखा कि पुरवासी पूजा की सामग्री लिए एक ओर जा रहे हैं। उन्होंने देखा कि एक तपस्वी, जहां पंचाग्नि जला रहा है और अग्नि में एक सर्प का जोड़ा मर रहा है। तब पार्श्वनाथ ने कहा:-‘दयाहीन धर्म किसी काम का नहीं।’ यह देख उनको वैराग्य हुआ और पार्श्वनाथ ने 30 वर्ष की उम्र में घर त्याग दिया और दीक्षा ली। अपना निर्वाणकाल समीप जानकर श्री सम्मेद शिखरजी पहुंचे। जहां श्रावण शुक्ल सप्तमी को उन्हे मोक्ष मिला।
भगवान पार्श्वनाथ की लोक व्यापकता का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि आज भी सभी तीर्थंकरों की मूर्तियों और चिन्हों में पार्श्वनाथ का चिन्ह सबसे ज्यादा है। आज भी पार्श्वनाथ की कई चमत्कारिक मूर्तियां देशभर में विराजित हैं। जिनकी गाथा आज भी पुराने लोग सुनाते हैं। जैन ग्रंथों में तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ के नौ पूर्व जन्मों का वर्णन है। पहले जन्म में ब्राह्मण, दूसरे में हाथी, तीसरे में स्वर्ग के देवता, चौथे में राजा, पांचवें में देव, छठवें जन्म में चक्रवर्ती सम्राट और सातवें जन्म में देवता, आठ में राजा और नौवें जन्म में राजा इंद्र (स्वर्ग) के बाद 10वें जन्म में उन्हें तीर्थंकर बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। पूर्व जन्मों के संचित पुण्यों और 10वें जन्म के तप के फलस्वरूप तीर्थंकर बनें।
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