भगवान अरहनाथ का गर्भ कल्याणक 2 मार्च रविवार को है। जैन धर्म के 18वें तीर्थंकर भगवान अरहनाथ का गर्भ कल्याणक का यह त्योहार जैन समाज भक्ति भाव से मनाएगा। भारतीय कैलेंडर की तिथि के अनुसार यह गर्भ कल्याणक फाल्गुन शुक्ल तृतीया के दिन आ रहा है, जो इस बार रविवार 2 मार्च को मनाया जाएगा। इस दिन शहर के दिगंबर जैन मंदिरों में पूजा-पाठ के विशेष आयोजन होंगे। श्रीफल जैन न्यूज की विशेष प्रस्तुति पढ़िए उपसंपादक प्रीतम लखवाल के संयोजन और संकलन में….
इंदौर। भगवान अरहनाथ जैन धर्म के अठारहवें तीर्थंकर हैं। जैन धर्मावलंबी भगवान अरहनाथ जी का गर्भ कल्याणक महोत्सव फाल्गुन शुक्ल तृतीया के दिन मनाते हैं। इस मौके पर शहर के दिगंबर जैन मंदिरों में पूजा-पाठ के विशेष आयोजन किए जाते हैं। इस भरत क्षेत्र के कुरुजांगल देश में हस्तिनापुर नगरी में सोमवंश में उत्पन्न हुए काश्यप गोत्रीय राजा सुर्दशन राज करते थे और उनकी पत्नी रानी मित्रसेना थी। रानी ने रत्न वृष्टि आदि देव सत्कार पाकर फाल्गुन शुक्ल तृतीया के दिन गर्भ में अहमिंद्र के जीव को धारण किया। उसी समय देवों ने आकर गर्भ कल्याणक महोत्सव मनाया। रानी मित्रसेना ने नवमास के बाद मगसिर शुक्ल चतुर्दशी के दिन पुष्य नक्षत्र में पुत्र रत्न को जन्म दिया। देवों ने बालक को सुमेरू पर्वत पर ले जाकर जन्माभिषेक महोत्सव कर भगवान का नाम अरहनाथ रखा। भगवान के कुमार काल के 21 हजार वर्ष बीत जाने पर उन्हें मंडलेश्वर के योग्य राजपद प्राप्त हुआ। इसके बाद इतना ही काल व्यतीत होने पर चक्रवर्ती पद मिला।
मेघों का विलय देखकर हुआ वैराग्य
इस तरह से भोग भोगते हुए जब आयु का तीसरा भाग बाकी रह गया तब शरद ऋतु के मेघों का अकस्मात विलय देखकर भगवान को वैराग्य हो गया। लौकांतिक देवों ने स्तुत्य भगवान अपने अरविंद कुमार को राज्य देकर देवों द्वारा उठाई हुई वैजयंती नामक पालकी पर सवार होकर सहेतुक वन पहुंचे। तेला का नियम कर मगसिर शुक्ल दशमी के दिन रेवती नक्षत्र में भगवान ने जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर ली। पारणा के दिन चक्रपुर नगर के अपराजित राजा ने भगवान को आहारदान देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किया। प्रभु की देह का रंग स्वर्ण के समान था तथा उन्का प्रतीक चिह्न मछली था।
12 में 7वें चक्रवर्ती थे भगवान अरहनाथ जी
भगवान अरहनाथ जी जैन धर्म में वर्णित 12 चक्रवर्ती में सातवें चक्रवर्ती थे। अरहनाथ जी से पहले प्रभु शांतीनाथ जी और प्रभु कुन्थुनाथ जी भी तीर्थंकर होने के साथ चक्रवर्ती भी थे। (नोटः भगवान महावीर ने भी वासुदेव और चक्रवर्ती का पद धारण किया था, लेकिन वह अलग-अलग भव में थे। भगवान महावीर का तीर्थंकर का भव अलग तथा चक्रवर्ती का भव अलग था)। जैन धर्म में केवल 3 तीर्थंकर भगवान शांतिनाथ जी, भगवान कुन्थुनाथ जी और भगवान अरहनाथ जी तीर्थंकर होने के साथ-साथ उसी भव में चक्रवर्ती भी थे। जिस प्रकार से चक्रवर्ती के 12 रत्न उत्पन्न होते हैं। उसी प्रकार से प्रभु अरहनाथ के भी 12 रत्न उत्पन्न हुए और जिस प्रकार से तीर्थंकर प्रभु के अतिशय और कल्याणक होते हैं। वैसे प्रभु अरहनाथ के भी हुए। (ऐसा पूर्व के दो तीर्थंकर भगवान शांतिनाथ जी और भगवान कुन्थुनाथ जी के साथ भी हुआ था)। तीर्थंकर प्रभु का विपुल ऐश्वर्य होता है। तीर्थंकर महाप्रभु धर्म के सूर्य होते हैं। उनका ज्ञान प्रकाश समस्त अज्ञान तिमिर को हर लेता है।
प्रभु की देह का आकार 30 धनुष था
भगवान अरहनाथ जी की आयु 84 हजार वर्ष की थी। भगवान की देह का आकार 30 धनुष था। भगवान अरहनाथ जी ने मार्गशीर्ष शुक्ल दशमी के दिन हस्तिनापुर से दीक्षा ग्रहण की थी। दीक्षा कल्याणक के साथ ही प्रभु को मनः पर्व ज्ञान की प्राप्ति हुई। भगवान अरहनाथ जी का साधना काल 16 वर्ष का था। इन 16 वर्षाे की साधना में उन्होंनेजन्म जन्मांतरों से चले आ रहे अपने घाती कर्माें (अष्टकर्माें में सें चार कर्म) का अंत कर कार्तिक शुक्ल द्वादशी के दिन निर्मल केवल ज्ञान प्राप्त किया। केवल ज्ञान के साथ ही प्रभु अरिहंत, जिन, केवली हो गए। इसके बाद उन्होंने चार तीर्थ (साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका) की स्थापना की और स्वयं तीर्थंकर कहलाए। प्रभु पांच ज्ञान के धारक हो गए थे।
प्रभु के संघ में 50 हजार मुनि थे
भगवान अरहनाथ जी का संघ बहुत विशाल था। इनके संघ में 50 हजार मुनि थे। गणधरों की संख्या 30 थी। प्रथम गणधर का नाम कुंभ था। यक्ष का नाम महेंद्र देव तथा यक्षिणी का नाम विजया देवी था।
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