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मुनि दीक्षा शताब्दी पूर्ण : आचार्य श्री सूर्य सागर जी महाराज की जीवनगाथा


आचार्य श्री 108 सूर्य सागर जी महाराज दिगम्बर जैन परम्परा के प्रमुख साधुओं में से थे जिन्होंने जैन आगम को सुदृढ़ करने और स्थायित्व प्रदान करने के लिए साहित्य के माध्यम से महत्वपूर्ण योगदान दिया। 21 नवम्बर 1928 को कोडरमा (झारखंड) में उन्हें आचार्य पद पर सुशोभित किया गया। पढ़िए समीर जैन का विशेष आलेख…


प्रशममूर्ति आचार्य श्री शान्तिसागर जी महाराज (छाणी) परम्परा के प्रथम पट्टाधीश, परम पूज्य आचार्य श्री 108 सूर्य सागर जी महाराज का जन्म 9 नवम्बर 1883 को ग्राम प्रेमसर, जिला ग्वालियर (म.प्र.) में हुआ था। आचार्य श्री ने 4 अक्टूबर 1924 को इन्दौर (म.प्र.) में आचार्य श्री 108 शान्तिसागर जी महाराज (छाणी) के कर-कमलों से ऐलक दीक्षा ग्रहण की। इसके 51 दिन बाद 23 नवम्बर 1924 को हाटपीपल्या, जिला देवास (म.प्र.) में मुनि दीक्षा ली और आत्म-कल्याण के मार्ग पर आरूढ़ हुए।

आचार्य श्री 108 सूर्य सागर जी महाराज दिगम्बर जैन परम्परा के प्रमुख साधुओं में से थे जिन्होंने जैन आगम को सुदृढ़ करने और स्थायित्व प्रदान करने के लिए साहित्य के माध्यम से महत्वपूर्ण योगदान दिया। 21 नवम्बर 1928 को कोडरमा (झारखंड) में उन्हें आचार्य पद पर सुशोभित किया गया।

मुनि दीक्षा के शताब्दी वर्ष का उल्लास

आचार्य श्री 108 सूर्य सागर जी महाराज के मुनि दीक्षा के 100 वर्ष पूर्ण होने के अवसर पर उनके प्रमुख शिष्य परम पूज्य आचार्य श्री 108 अतिवीर जी मुनिराज ने आचार्य श्री के चरणों में विनयांजलि अर्पित करते हुए कहा कि आचार्य श्री के जीवन में जहाँ आत्म-कल्याण एवं स्वात्मोत्थान की भावना थी, वहीं धर्म प्रभावना और समाज के उत्थान के विचार भी प्रमुख रहे।

आपने तीर्थंकर महावीर स्वामी की देशना को जन-जन में प्रचारित किया और समाज में व्याप्त कुरीतियों को दूर करने का साहसिक प्रयास किया। आचार्य श्री 108 सूर्य सागर जी महाराज का जीवन सच्चे समाज सुधारक का आदर्श प्रस्तुत करता है।

उपदेशों और साहित्य के माध्यम से समाज का मार्गदर्शन

आचार्य श्री की विद्वता, चारित्रिक निर्मलता और संघ दक्षता को देखते हुए, आचार्य श्री 108 शान्तिसागर जी महाराज (छाणी) के समाधिमरण के बाद उन्हें परम्परा के पट्टाचार्य पद पर सुशोभित किया गया। आचार्य श्री विवेकी साधु थे, जिन्होंने अपने मूलगुणों में कभी भी दोष न लगने का पूरा ध्यान रखा।

आपका धार्मिक जीवन स्वाध्याय और ज्ञानाभ्यास से भरपूर था। आपने स्वयं ज्ञान अर्जित किया और अपने शिष्यों को भी स्वाध्याय के माध्यम से धर्म की शिक्षा दी। सन 1928 में आपने संघ सहित शाश्वत तीर्थ श्री सम्मेद शिखर जी की वंदना की, जहां आपका मंगल मिलन आचार्य श्री 108 शान्तिसागर जी महाराज (दक्षिण) और 50-60 साधुओं से हुआ। यह एक ऐतिहासिक अवसर था, जब इतने साधु एक साथ श्री सम्मेद शिखर जी में विराजमान हुए थे।

ग्रंथों का संकलन और समाज की सेवा में योगदान

आचार्य श्री 108 सूर्य सागर जी महाराज ने लगभग 35 ग्रंथों का संकलन किया, जिनमें ‘संयमप्रकाश’ विशेष रूप से उल्लेखनीय है। यह ग्रंथ श्रमण और श्रावकों को उनके कर्तव्यों का बोध कराता है। आपने समाज में व्याप्त कषाय और अज्ञान को दूर करने के लिए हमेशा प्रयत्नशील रहते हुए पाठशालाएं, विद्यालय और औषधालय स्थापित किए।

आपका जीवन उदाहरण प्रस्तुत करता है कि किसी भी महान गुरु का उद्देश्य न केवल आत्म-कल्याण होता है, बल्कि समाज के उत्थान और सुधार के लिए भी उनका योगदान महत्वपूर्ण होता है।

समाधि और जीवन का समापन

सन 1952 में, जब आचार्य श्री दिल्ली से श्री सम्मेद शिखर जी की ओर मंगल विहार कर रहे थे, उनका स्वास्थ्य बहुत गिर गया। 15 जुलाई 1952 को श्रावण कृष्णा नवमी तदनुसार आचार्य श्री ने समाधिपूर्वक मरण कर इस नश्वर देह का त्याग किया। उस समय आचार्य श्री के निकट कई त्यागीवृन्द और श्रद्धालु उपस्थित थे, जिनमें क्षुल्लक श्री पूर्णसागर जी और अन्य प्रमुख व्यक्तित्व शामिल थे।

आचार्य श्री के विशाल व्यक्तित्व और कृतित्व ने न केवल दिगम्बर जैन समाज में बल्कि सम्पूर्ण समाज में अपनी अमिट छाप छोड़ी। उनके मार्गदर्शन में अनेक भव्य जीवों ने जैनेश्वरी दीक्षा ली और जीवन को धन्य किया। आचार्य श्री विजय सागर जी, मुनि श्री आनन्द सागर जी, मुनि श्री पद्म सागर जी और अन्य कई योग्य शिष्य उनके आशीर्वाद से समृद्ध हुए।

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