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जिससे राग, उसके अवगुण और जिससे द्वेष उसके गुण नहीं दिखते’

  • मुनि श्री आदित्य सागर जी महाराज के श्रुत आराधना वर्षा योग के दौरान प्रवचन

न्यूज सौजन्य-राजेश जैन दद्दू

इंदौर। ‘राग-द्वेष, मोह की संतान हैं। एक मीठा जहर एक कड़वा जहर है। राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, नौ कर्म, मन, वचन, काय और पांच इंद्रियां यह मोह की सेना हैं। जिसने इन सैनिकों को अपने वश में कर लिया, उसका जीवन सार्थक है और उसे मोक्ष मार्ग की ओर प्रशस्त होने से कोई रोक नहीं सकता।’
यह उद्गार गुरुवार को मुनि श्री आदित्य सागर जी महाराज ने श्रुत आराधना वर्षा योग के दौरान समोसरण मंदिर, कंचन बाग में धर्मसभा को संबोधित करते हुए व्यक्त किए।
राग के दशा की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि जीव में राग का परिवर्तन हो रहा है, अभाव नहीं हो रहा है। जिसके प्रति हमारा राग हो, उसके अवगुण हमें नहीं दिखते और जिसके प्रति द्वेष हो उसके गुण नहीं दिखते। मुनिश्री ने कहा कि मोह संसार को बढ़ाने वाला और निर्ममत्व भाव संसार को घटाने वाला है। आज जीव की यह दशा है कि राग को जानने पर भी जीव उसे छोड़ नहीं रहा है। जीव का ज्ञान संवृत (ढका हुआ) है। जब तक मोह विगलित नहीं होगा, तब तक कर्म भी विगलित नहीं होंगे। राजेश जैन दद्दू ने बताया कि धर्मसभा में आदित्य सागर जी महाराज के गृहस्थ जीवन के पिता श्री राजेश जैन जबलपुर, बंगेला जी सागर, डॉक्टर अरविंद जैन, देवेंद्र सेठी आदि भारी संख्या में समाज जन उपस्थित थे।

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प्रकाश श्रीवास्तव

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