श्रीफल जैन न्यूज़ आपके लिए लाया है जैन संस्कार क्रियाओं का अर्थ और उन्हें पूरा करने के विधि-विधान । जैन शास्त्र कहते हैं कि जैन संस्कृति से जुड़ी 53 क्रियाओं के विधिवत पालन से श्रावक, परमत्व को प्राप्त हो सकता है । पहली कड़ी में हमने गर्भाधान क्रिया को लेकर बात की थी । आज की कड़ी में अंतर्मुखी मुनि श्री पूज्य सागर जी की वाणी पर आधारित लेख में विस्तार से जानिए, प्रीति क्रिया, सुप्रीति क्रिया, धृति क्रिया, मोद क्रिया, प्रियोद्भव क्रिया के बारे में…
प्रीति क्रिया
प्रीति क्रिया में गर्भाधान के पश्चात तीसरे महीने, पहले जो पूजा विधि बताई गई है, उसी तरह से भगवान् की पूजा करनी चाहिए। द्वार पर तोरण बांधना चाहिए और दो कलश जल से भरे स्थापित करना चाहिए । उस दिन से लेकर प्रतिदिन बाजे, नगाड़े आदि बजवाने चाहिए ।
सुप्रीति क्रिया
गर्भाधान के पांचवें महीने पुन: पहले की गई प्रकार से भगवान की पूजा करें।
धृति क्रिया
गर्भाधान के सातवें महीने में गर्भ की वृद्धि के लिए पुन: पहले के समान पूजन – विधान करना चाहिए ।
मोदक्रिया
गर्भाधान के नवें महीने में गर्भ की पुष्टि के लिए पुन: पहले के समान पूजन – विधान करके, स्त्री को गात्रिकाबंध, मंत्रपूर्वक बीजाक्षर लेखन व मंगलाभूषण पहनाना और रक्षा के उद्देश्य से रक्षा सूत्र बांधना चाहिए, यह सब कार्य करने चाहिए ।
प्रियोद्भव क्रिया
बच्चे का जन्म होने पर जात कर्मरूप, मंत्र व पूजन आदि का बड़ा भारी पूजन विधान किया जाता है। जिसका सम्पूर्ण वर्णन उपासकाध्ययन से जानना चाहिए।
नामकर्म क्रिया
जन्म से 12वें दिन या जो दिन पुत्र, माता – पिता के अनुकूल हो, उस दिन पूजा व द्विज आदि के सत्कारपूर्वक, अपनी इच्छा से ज्योतिष से या भगवान् के 1008 नामों से घटपत्र विधि द्वारा बालक का कोई योग्य नाम छांटकर रखना चाहिए ।
बहिर्यान क्रिया
जन्म से दो – तीन या चार महीने बाद ही शुभदिन में बालक को प्रसूतिगृह से गाजे-बाजे के साथ बाहर ले जाना चाहिए। बालक को यथाशक्ति कुछ भेंट आदि दी जाती है। यह भेंट बेटे को उस समय वापस देना चाहिए, जब वह पिता का उत्तराधिकारी बनें।
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