ग्रन्थमाला

मंगलाचरण रत्नकरण्ड श्रावकाचार,यह जानना जरूरी है… क्यों है मंगलाचरण करने की परम्परा?

श्रीफल जैन न्यूज की प्रस्तुति

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किसी भी शुभकार्य को करने के पहले मंगलाचरण करने की धार्मिक परम्परा रही है। इसके पीछे कई कारण हैं-जैसे कार्य की समाप्ति निर्विघ्न हो, नास्तिकता का परिहार हो, शिष्टाचार का पालन हो, उपकार के स्मरण के लिए, पुण्य की प्राप्ति और शिष्यों के अनुग्रह के लिए।

मंगलाचरण करने से शिष्य विद्या में पारंगत होता है, कार्य निर्विघ्न पूर्ण होता है और विद्या और विद्या के फल की प्राप्ति होती है।

रत्नकरण्ड का अर्थ होता है जानने के लिए इसका संधि विच्छेद करते हैं। रत्न अर्थात रत्न और करण्ड का अर्थ पिटारा अर्थात रत्नों का पिटारा।

प्रश्न उठता है कि कौन से रत्न? ये रत्न हैं-सम्यगदर्शन, सम्यगज्ञान और सम्यगचारित्र। इन तीन का पिटारा। यह ग्रंथ चरणानुयोग का है। यह ग्रंथ संस्कृत भाषा में लिखा हुआ है और ग्रंथ में 150 श्लोक संस्कृत में हैं।

आओ मंगलाचरण से स्वाध्याय प्रारम्भ करते हैं…

नमः श्री वर्धमानाय निर्धूत कलिलात्मने ।

सालोकानां त्रिलोकानां यद्विद्या दर्पणायते ॥1॥

 

अर्थात जिनका कैवल्यज्ञान अलोक सहित तीनों लोकों में दर्पण के समान आचरण करता है, जिन्होंने पाप रूपी मैल को आत्मा से नष्ट कर दिया है, ऐसे श्री महावीर भगवान को नमस्कार हो।

यहां कहा जा रहा है कि भगवान महावीर को नमस्कार करने में, मैं अर्थात आचार्य समंतभ्रद स्वामी इस ग्रंथ को कहना प्रारम्भ कर कर रहा हूं।

यह आचार्य की विनम्रता है कि वह तीर्थंकर का स्मरण कर अपनी बात शुरू कर रहे हैं। जो ज्ञान तीन लोक की बात को एक क्षण में बिना किसी सहायक के जान जाए, उसे कैवल्य ज्ञानी कहते हैं।

तीन लोक के बाहर सर्व आकाश को अलोक कहते हैं। आकाश के जितने क्षेत्र में जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल रहते हैं, उसे लोक कहते हैं। आकाश के बीचोंबीच मध्य में लोक स्थित है।

कलित अर्थात घातिया कर्म। ज्ञानवरण, दर्शनावरण, मोहनीय और वेदनीय, यह घातिया कर्म हैं। जो जीव के भाव रुप अनुजीवी गुणों का घात करते हैं उन कर्मों को घातिया कर्म कहते हैं।

 

(अंतर्मुखी मुनि श्री पूज्य सागर महाराज की डायरी से)

 

ग्रंथमाला- 1 :आओ जानें रत्नकरण्ड श्रावकाचार और आचार्य श्री समन्तभद्र स्वामी के बारे में

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