राजस्थान के जैन संत व्यक्तित्व और कृतित्व श्रंखला में आज जैन संत श्री संयमसागर जी के बारे में जानते हैं। संत श्री संयमसागर जी भट्टारक कुमुदचंद्र के शिष्य थे। ये ब्रह्मचारी थे और अपने गुरु को साहित्य निर्माण में योगदान दिया करते थे। जैन धर्म के राजस्थान के दिगंबर जैन संतों पर एक विशेष शृंखला में 31वीं कड़ी में श्रीफल जैन न्यूज के उप संपादक प्रीतम लखवाल का जैन संत संयमसागरजी के बारे में पढ़िए विशेष लेख…..
इंदौर। राजस्थान के जैन संत व्यक्तित्व और कृतित्व श्रंखला में आज जैन संत श्री संयमसागर जी के बारे में जानते हैं। संत श्री संयमसागर जी भट्टारक कुमुदचंद्र के शिष्य थे। ये ब्रह्मचारी थे और अपने गुरु को साहित्य निर्माण में योगदान दिया करते थे। ये स्वयं भी कवि थे। इनके अब तक कितने ही पद और गीत उपलब्ध हो चुके हैं। इनमें नेमिगीत, शीतलनाथ गीत, गुणावलि गीत के नाम विशेषतः उल्लेखनीय है। अपने अन्य साथियों के समान इन्होंने भी कुमुदचंद्र के स्तवन एवं प्रशंसा के रूप में गीत एवं पद लिखे हैं। ये सभी गीत एवं पद इतिहास की दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण है।
इनकी प्रमुख रचनाओं में
संत श्री संयमसागर जी की रचनाओं में भट्टारक कुमुदचंद्र गीत, पद आवो साहेलडीरे सहू मिलि संगे, पद सकल जिन प्रणमी भारती समरी, नेमिगीत, शीतलनाथगीत, गीत, गुरावली गीत आदि प्रमुख हैं। संत श्री संयमसागर जी ने गुरु भक्ति के साथ साहित्य की सृजना खूब की है। इससे जैन समाज को भी गुरु भक्ति, भगवान की आराधना, भक्ति आदि की प्रेरणा मिली। उन्होंने अपने पदों को सरल और सहज राजस्थानी भाषा में लिखा। जिसे सभी आसानी ग्राह्य कर सकें। कुछ-कुछ रचनाओं में प्राकृत भाषा का भी पुट मिलता है।
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