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जैन संत दयानंद जी को 30 मार्च को दी जाएगी मुनि दीक्षा : मुनि पद साधक की श्रेष्ठ अवस्था है


आचार्य वसुनंदी जी महाराज के शिष्य चांदपुर दिमनी के रहवासी एलक श्री दयानंद जी का मुनि दीक्षा संस्कार कार्यक्रम 30 मार्च गुड़ी पड़वा को सुबह 9 बजे अतिशय तीर्थ क्षेत्र पदम्पुरा जयपुर में होगा। इसके लिए भव्य समारोह आयोजित किया जा रहा है। इसमें बड़ी संख्या में श्रद्धालुजन साक्षी बनकर पुण्यार्जन करेंगे। अंबाह से पढ़िए अजय जैन की यह खबर…


अंबाह। आचार्य वसुनंदी जी महाराज के शिष्य चांदपुर दिमनी के रहवासी एलक श्री दयानंद जी का मुनि दीक्षा संस्कार कार्यक्रम 30 मार्च गुड़ी पड़वा को सुबह 9 बजे अतिशय तीर्थ क्षेत्र पदम्पुरा जयपुर में होगा। लगभग 5 माह वर्ष पूर्व चांदपुर दिमनी निवासी नत्थीलाल जैन ने जैन संत वसुनंदी जी महाराज को गुरु बनाकर आध्यात्मिक के पथ पर चलने के लिए क्षुल्लक पद की दीक्षा ली थी। संत दयानंद जी के आत्म साधना की ओर निरंतर बढ़ते कदम देख एक माह पूर्व वसुनंदी जी महाराज ने उन्हें एलक पद की दीक्षा प्रदान की। इस पद पर भी खरा उतरने के बाद अब उन्हें सर्वाेच्च मुनि पद की दीक्षा 30 मार्च को प्रदान की जाएगी। इस दिन विशाल समारोह होगा। इसमें हजारों लोगों की मौजूदगी में एलक दयानंद जी महाराज को मुनि दीक्षा दी जाएगी। उल्लेखनीय है कि जैन संत दयानंद महाराज की पत्नी रामकली जैन भी आध्यात्मिकता के मार्ग पर बढ़ते हुए आर्यिका पद की दीक्षा ले चुकी हैं। उनके तीन पुत्र हैं, जिनमें संतोष जैन अशोक नगर, रूपेश जैन उर्फ नीलेश मुरैना एवं दीपक जैन जबलपुर में निवास करते हैं। अपने ससुर के दीक्षा समारोह के बारे में शिक्षिका वर्षा जैन ने बताया कि जैन धर्म अपनी प्राचीनता, संयम और तपश्चरण की परम पराकाष्ठा एवं दिगंबरत्व रूप के कारण विशेष स्थान रखता है। जैन धर्म के साधु परंपरा को श्रमण कहा गया है। जैन साधु श्रमण भी कहे जाते हैं, जो कोई व्यक्ति जैन धर्म की चर्चा का पालन करने के लिए वह स्वतंत्र है। गृहस्थ व्यक्ति की प्रथम अवस्था है श्रावक, उससे आगे की एवं मुनि पद साधक की श्रेष्ठ अवस्था है।

मुनि की बाह्य स्थितियों को समझना जरूरी

मुनि को साधु परमेष्ठी भी कहा गया है, मुनि अवस्था क्या है, मुनि अवस्था की आंतरिक स्थिति को जानने से पहले, बाह्य स्थिति को जानना आवश्यक है। मुनि दिगंबर रहकर पैदल विहारी एवं समस्त परिग्रहों का त्याग करते हुए मात्र तीन उपकरण क्रमश पिच्छिका (मोर पंख की), कमंडल एवं ग्रंथ को अपने पास रखते हैं। मुनि की बाह्य स्थितियों को समझना जरूरी है। मुनि की दिगंबर अवस्था इस बात का प्रमाण है कि वे यथाजात रूपी अर्थात जैसे जन्म हुआ था, वह स्वभाव की मूल अवस्था है, जिसमें वे जीते हैं, समस्त प्रकार के परिग्रह को त्याग कर अपने शरीर पर किसी प्रकार के वस्त्र का परिग्रह भी धारण नहीं करते। मुनि की इस शैली पर विचार करने पर ज्ञान होता है कि वह मात्र परिग्रह त्याग का जीवन जीकर उत्तम ब्रह्मचर्य के धारक होते हैं, अत एव धरती बिछौना और आकाश वस्त्र होते हैं, इसलिए इन्हें दिगंबर कहा जाता है।

…उनसे प्रेरणा लेकर उनका अनुसरण कर रहे हैं

उपकरण मोर पंख की पिच्छिका जीवों की रक्षा के लिए, कमंडल में जल शुद्धि के लिए एवं स्वाध्याय के लिए जैनागम साहित्य, मात्र इन तीन उपकरणों के धारक मुनिराज सूक्ष्म से सूक्ष्म जीवों की रक्षार्थ पिच्छिका साथ में रखकर जहां पर बैठना है, उठना है या ग्रंथ आदि खोलना है तो पूर्व इसके परिमार्जन के लिए इस पिच्छिका का उपयोग करते हुए जीवों की रक्षा करते हैं, इसी प्रकार प्रासुक (शुद्ध) जल कमंडल में रखते हुए बाह्य शुद्धि के उपयोग में लेते हैं एवं चिंतन, मनन और गहन ज्ञान के लिए जैनागम ग्रंथों को अपने पास रखते हैं, जो स्वाध्याय के लिए उपयोगी होता है। दिगंबर मुनिराज विधि मिलने पर ही आहार लेते हैं। वर्षा जैन ने कहा कि हमारा परम सौभाग्य है कि हमारे परिवार से हमारी सासु मां के बाद हमारे ससुर ने भी आध्यात्मिक के मार्ग पर पग बढ़ाते हुए आत्म कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया है। जिससे हम सभी उनसे प्रेरणा लेकर उनका अनुसरण कर रहे हैं।

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