जैन साध्वी गणिनी प्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने भव्य केशलोच किया। जैन ग्रंथ के अनुसार दिगम्बर साधु-साध्वियों को साल में 3 बार यह प्रक्रिया प्रत्येक 4 माह में करनी होती है। जिसमें प्रातःकाल भगवान ऋषभदेव की 39 फुट उत्तुंग प्रतिमा का मस्तकाभिषेक सम्पन्न किया गया एवं विश्वशांति की कामना के लिए भगवान के मस्तक पर शांतिधारा सम्पन्न की गई। पढ़िए उदयभान जैन की यह पूरी खबर…
रायगंज। भगवान ऋषभदेव दिगम्बर जैन मंदिर बडी मूर्ति रायगंज अयोध्या में जैन साध्वी गणिनी प्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने किया भव्य केशलोच। जिसमें प्रातःकाल भगवान ऋषभदेव की 39 फुट उत्तुंग प्रतिमा का मस्तकाभिषेक सम्पन्न किया गया एवं विश्वशांति की कामना के लिए भगवान के मस्तक पर शांतिधारा सम्पन्न की गई एवं वरिष्ठ जैन साध्वी गणिनी प्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने अपने हाथों से अपने केशों को उखाड़ा जैन ग्रंथ के अनुसार दिगम्बर साधु-साध्वियों को साल में 3 बार यह प्रक्रिया प्रत्येक 4 माह में करनी होती है।
दीक्षा के पश्चात् अपने हाथों से अपने केश को निकालना
जैन मंदिर के विजय कुमार जैन ने बताया कि पूज्य भारत गौरव गणिनी प्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने केशलोच किया। जिसके अन्तर्गत दिगम्बर जैन साधु एवं साध्वियों को दीक्षा के पश्चात् अपने हाथों से अपने केश को निकालना होता है। जिसे शरीर से निर्ममता का प्रतीक समझा जाता है। जैन साधु अपने केश अपने हाथ से निकालते हैं एवं उस दिन निर्जल उपवास करते हैं।
केशलोच वर्ष में चार बार किया जाता है
वर्तमान में सारे देश के अन्दर 1750 दिगम्बर संत विराजमान हैं। जो साल में 4 बार इस प्रक्रिया को अपने हाथों से सम्पन्न करते हैं। त्याग और संयम की साधना करते हुए सिर्फ दिन में एक बार आहार ग्रहण करते हैं। दवाई, पानी आदि उसी समय लेते हैं यदि भोजन में अन्तराय आ जाए तो 24 घंटे पश्चात् जल की बूंद ग्रहण करते हैं। पदयात्रा करते हैं। किसी भी वाहन का प्रयोग नहीं करते हैं। बिस्तर आदि का प्रयोग ठंडी गर्मी बरसात में नहीं करते हैं। जैन साधुओं का ये मुख्य गुण होता है।
माताजी ने 550 से अधिक ग्रंथों का सृजन किया
परमपूज्य गणिनी प्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी 73 वर्ष से संयम की आराधना से जीवन यापन कर रही हैं। त्याग की प्रतिमूर्ति महासाधिक विदुषी संत हैं जिन्होंने 550 से अधिक ग्रंथों का सृजन अपनी लेखनी से किया है।
केशलोच साधु की मुख्य क्रिया है
पीठाधीश स्वस्तिश्री रवीन्द्रकीर्ति स्वामीजी ने बताया कि प्रत्येक जैन साधु को यह प्रक्रिया करना अनिवार्य होता है। साधु बनने के पूर्व सबसे पहले केशलोच करना होता है। उसके पश्चात् ही उनके मस्तक पर संस्कार गुरु के द्वारा किए जाते हैं। जिससे वह दीक्षा ग्रहण करते हैं। यह अपने आप में कठोर तपश्चरण है, क्योंकि वर्तमान युग में केश ही श्रृंगार का मुख्य आकर्षण है। लेकिन जैन संत घास के समान इसको अपने हाथों से निकालते हैं।
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