सारांश
जैन संस्कृति में उपनयन संस्कारों की महिमा अपरंपार है । उपनयन संस्कार के बिना श्रावकों को पूजन,अभिषेक और आहार का अधिकार नहीं है। जनेऊ को संस्कृत में यज्ञोपवीत कहते हैं। इसे धारण करने के संस्कार को उपनयन संस्कार कहते हैं। जानिए जैन संस्कृति में उपनयन संस्कारों का महात्म्य, अंतर्मुखी श्री पूज्य सागर जी महाराज की वाणी पर आधारित लेख में…
जैन श्रावकों के लिए उपनयन संस्कार का अत्यधिक महत्व है । आठ वर्ष की आयु के बाद प्रत्येक श्रावक को इसे पहनाना चाहिए। यह श्रावक की पहचान है। गणिनी आर्यिका सुपार्श्वमती माता जी ने शास्त्रों के आधार से उपनयन को लेकर इतनी बड़ी बात कही है कि बिना उपनयन के श्रावक पूजन, अभिषेक, आहार का अधिकारी ही नहीं है । भगवान आदिनाथ ने अपने पुत्र भरत का उपनयन संस्कार अपने हाथों से किया था।
इससे ही प्रमाणित हो जाता है कि एक श्रावक के लिए उपनयन संस्कार का कितना महत्व है। शास्त्रों के अनुसार बच्चा जब आठ साल का हो जाता है, तब उसका उपनयन संस्कार किया जाता है। उपनयन संस्कार के साथ ही बच्चे के लिए नियम हो जाता है कि अब वह अष्टमूलगुणों का पालन करे। इस पहले भी उसका त्याग था लेकिन उस त्याग को निभाने की जिम्मेदारी माता-पिता की थी। अब उपनयन संस्कार के बाद बच्चे की स्वयं जिम्मेदारी होती है कि वह इसका पालन करे। अष्टमूलगुण का मतलब मद्य, मांस, मधु, ऊमर, कठूमर, पीपल, बड़, पाकर का जीवन भर के लिए त्याग करना है।
उपनयन धारण किए बिना कोई धार्मिक क्रिया करने का अधिकार नहीं
उपनयन धारण किए बिना कोई भी धार्मिक क्रिया करने का श्रावक अधिकारी नहीं है। गणिनी आर्यिका सुपार्श्वमती माता जी ने तो अपने प्रवचन यह तक कहा था कि बिना उपनयन संस्कार के किया दान भी पाप का कारण होता है। इसलिए तो श्रावक की 53 क्रियाओं में उपनीति नाम की क्रिया का उल्लेख है। आज भी पंचकल्याण, विधान में उपनयन पहनाकर पूजा-अभिषेक करवाते हैं। प्रतिष्ठा आदि ग्रंथों में उपनयन पहने का मंत्र दिया हुआ है। उपनयन धारण करने से शरीर को स्वच्छ और स्वस्थ रखने का उपदेश मिलता है। उपनयन एक संस्कार है जो व्यक्ति को धर्म और उसकी क्रियाओं से जोड़े रखने का काम करता है। उपनयन संस्कार के बिना दान तो क्या, शास्त्र अध्ययन के लिए आश्रम में भी नहीं जा सकते हैं। उपनयन का अर्थ है, जो पास या सन्निकट ले जाए, जो आत्मा के नजदीक ले जाने का काम करे। आत्मा के नजदीक जाना क्यों जरूरी है तो इसका उत्तर है इसको धारण करने वाला नियम, व्रत, संयम लेता है।
जानिए, उपनयन में कितने धागे धारण करने का अर्थ क्या ?
शास्त्रों में उपनयन 7 धागों, 3 धागों, 11 धागों तक धारण करने का नियम है। उपनयन को व्यक्ति बाएं कंधे के ऊपर तथा दाईं भुजा के नीचे पहनता है। सात तार धागे का उपनयन सात परम स्थान का प्रतीक है। तीन धागा रत्नत्रय का सूचक है। एक प्रतिमा से लेकर 11 प्रतिमा को धारण करने वाला उतने ही तार की उपनयन पहनता है। जो असि, मसि, कृषि, वाणिज्य के द्वारा आजीविका करता है, ऐसे द्विज को यज्ञोपवीत धारण करना चाहिए। जो नाचना, गाना आदि शिल्प से अपनी आजीविका पालते हैं, ऐसे पुरुष को यज्ञोपवीत आदि संस्कार आज्ञा नहीं है। किन्तु ऐसे लोग यदि अपनी योग्यतानुसार व्रत धारण करें तो उनके लिए यह चिह्न हो सकता है कि वे संन्यास-मरण पर्यन्त एक धोती पहनें।
यज्ञोपवित धारण करने के क्या हैं नियम ?
यज्ञोपवित धारण करने वाला रात्रिभोजन नहीं करता है, मांस नहीं खाता है, अपनी विवाहिता कुल स्त्री के साथ ही समय व्यतीत करता है। उसे अनारंभी हिंसा का त्याग करना चाहिए और वह अभक्ष्य और अपेय पदार्थ का परित्याग करने वाला होता है। सूत के खराब हो जाने या टूट जाने पर जनेऊ को बदलना चाहिए।
ये जनेऊ बदलने का मंत्र
जनेऊ के बदलने के कई मंत्र हो सकते हैं लेकिन सबसे छोटा और आसान मंत्र यह है…
श्रीमन्मन्दर-सुन्दरे शुचि-जलै-धतैः सदर्भाक्षतैः, पीठे मुक्तिवरं निधाय रचितं त्वत् पाद-पद्म-स्रजः।
इन्द्रोऽहं निज-भूषणार्थकमिदं यज्ञोपवीतं दधे, मुद्रा – कङ्कण-शेखराण्यपि तथा जैनाभिषेकोत्सवे ॥ 2 ॥
ॐ नमो परम – शान्ताय शान्तिकराय पवित्रीकृतायाहं रत्नत्रय स्वरूपं यज्ञोपवीतं दधामि। मम गात्रं पवित्रं भवतु अर्हं नमः स्वाहा।
यज्ञोपवित धारण करने के वैज्ञानिक कारण
बार-बार बुरे स्वप्न आने की स्थिति में जनेऊ धारण करने से स्वप्न नहीं आते हैं। जनेऊ हृदय के पास से गुजरता है। इसलिए हृदय रोग की आशंका कम होती है। जनेऊ के पहनने से श्रावक सफाई के नियम में बंधा रहता है। उसे वह दांत, मुंह, पेट, कृमि, जीवाणुओं के रोगों से बचाती है। जनेऊ को दाएं कान पर धारण करने से कान की वह नस दबती है जिससे मस्तिष्क की कोई सोई हुई तंद्रा कार्य करती है।
दाएं कान की नस-नस अंडकोष और गुप्तेन्द्रियों से जुड़ी होती हैं। मूत्र विसर्जन के समय दाएं कान पर लपेटने से शुक्राणुओं की रक्षा होती है। कान में जनेऊ लपेटने से मनुष्य में सूर्य नाड़ी में जाकर जाग्रत होता है। पेट संबंधित रोग एवं रक्तपात की समस्या में भी बचाव होता है।
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