सारांश
सम्मेद शिखर हमारी आस्थाओं का केन्द्र है। लेकिन अब आदिवासी नेता इसे जिस रूप में प्रचारित कर रहे हैं वो बता रहा है कि कहीं हमारे आंदोलन का तरीका ही तो कहीं हमारे शिखरजी के लिए संकट का कारण नहीं बन गया। ये बात सही है कि शिखरजी की गरिमा का क्षरण,देश-दुनिया में फैले जैन समुदाय के लोग कभी बर्दाश्त नहीं कर सकते। अंतर्मुखी मुनि श्री पूज्यसागर जी महाराज का ये समसामयिक लेख पढ़िए और कीजिए आत्ममंथन….
सम्मेद शिखर जी पर हमारे 20 तीर्थंकरों ने यहां परममोक्ष प्राप्त किया। ये जैन समाज का सबसे बड़ा तीर्थ है। पूरे देश-विदेश में फैला जैन समाज इसके लिए उठ खड़ा हुआ । इसीलिए आंदोलन को तो कतई गलत नहीं कह सकते लेकिन हां हमारे आंदोलनों में कई कमियां हो गई। इस पर मैं ज़रूर अपनी बात कहना चाहता हूं।
शिखरजी को लेकर मन में खिन्नता थी कि हमने अपने-अपने संगठन और पसंदीदा सामाजिक नेताओं की महत्वाकांक्षाओं को आंदोलन की राह से ज्यादा महत्व दे दिया। आज शिखरजी ऐसा संवेदनशील क्षेत्र बन गया है, इसे अब नहीं संभाला गया तो जैन समाज अपने सबसे बड़े तीर्थ को भविष्य में कितना सुरक्षित रख पाएगा, अब उस पर चिंता होने लगी है। क्योंकि सम्मेद शिखर जी में आदिवासियों को बहला-फुसलाकर मुद्दा बनाने का राजनीतिक खेल शुरू हो चुका है। इस खेल को अब जैन समाज को समझना होगा। अब तक हमनें सड़कों पर आंदोलन किया मगर अब एक मानसिकता और मनोदशा सुधारने का एक आंदोलन ज़रूरी है।
शिखरजी के मुद्दे पर जैन समाज का संघर्ष इतना आगे बढ़ गया है कि अब हमें कुछ विराम देकर समग्र जैन समाज को भविष्य के लिए एकसूत्र में बांधने का काम करना है । एक-एक संगठन और उसका एक-एक सदस्य जिन्होनें आंदोलन में सहयोग किया था । मैं उस हर आंदोलनकारी की सराहना करता हूं जिसने जैन समाज में अलख जगाने का काम किया। लेकिन अब आंदोलन का वो दौर है जिसमें हम सभी को बैठकर सोचना चाहिए कि अब आगे क्या करना है।
सम्मेद शिखर हमारा प्राणों से भी प्यारा है
तूफान तो टल गए, मगर बहुत दूर अभी किनारा है
सम्मेद शिखर जी में मांस-मदिरा का सेवन न हो, वहाँ कोई पर्यटन न करें, वहाँ आकर वंदना करे तो किसे समस्या होगी। मधुवन में आदिवासियों के प्रति हमें सद्भाव रखना होगा। यहां के स्थानीय निवासियों के प्रति हम सद्भाव रखेंगे तो समस्या टल जाएगी। न प्रशासन बीच में आए और न सरकारें… ।
यहां जैन,अजैनी,आदिवासी जो भी आए वो तीर्थ के प्रति समर्पण भाव से आए। हम जैन समाज के लोगों को भी इसी समर्पण भाव को अंगीकार करते हुए टकराव की भाषा भूलकर एकजुटता की बात करनी होगी ।
“अभी एक श्रावक ने धनबाद से अनिल कुमार जैन का संदेश पढ़ा और मुझे बताया कि 14 और 15 जनवरी को मकर संक्रान्ति के मौके पर आदिवासियों का मेला लगता है । पारसनाथ क्षेत्र में शांति बहाली के लिए धनबाद के अनिल जैन की पहल देखने लायक है।
वो कह रहे हैं कि हम वहां जैन समाज की और से लाउडस्पीकर पर आदिवासियों का स्वागत करते हुए उन्हें गुड़ भेंट करेंगे और बताएंगे कि हमें पर्वत नहीं, पर्वत पर पवित्रता चाहिए। देखिए,कितनी अच्छी पहल है। धनबाद के अनिल जी और उनके परिवार को मेरा आशीर्वाद !”
भविष्य की राह बनाएं जैन समाज
हमें ये आज तय करना होगा कि जैन समाज की कल आने वाली पीढ़ी को सम्मेद शिखर में जैन तपस्वियों का वैभव उसी स्वरूप में मिले जैसा आज हमने बनाकर रखा है । भविष्य में ये स्थान और अधिक पवित्र कैसे बनें, इस पर विचार करना होगा ।
सोशल मीडिया के माध्यम से मनगढंत बातें कर रहा है। कोई ऐसे पोस्ट कर रहा है कि पता नहीं क्या हो जाएगा, कहीं-कहीं तो आंदोलन के नाम खून से पत्र लिख दिए गए, बताइए क्या जैन धर्म ये सब सीखाता है हमें ? मेरा सिर्फ यह कहना है कि हमारे तीर्थंकरों ने भी अपना संयम कभी नहीं खोया। संयम के माध्यम से अपने मन-वचन को साधा ।
हमारे आचार्यों ने कहा कि क्रोध,आवेश में आकर कोई भी काम पूरा नहीं होता। जैन समाज के आंदोलन का मजबूत पक्ष संख्याबल नहीं बल्कि चरित्र बल है। हमने अच्छी भावना से आंदोलन किया मगर इसे राजनीति की भेंट चढ़ा दिया गया। अब हमें यह देखना है कि वहाँ के आदिवासी भाइयों को कोई कष्ट न हो, क्योंकि ये हमने कभी नहीं चाहा था।
मगर दुर्भाग्य से आदिवासी आंदोलन में कुछ ऐसे नेता आ रहे हैं जो भोले-भाले आदिवासियों को बता रहे हैं कि ये पहाड़ छिना जा रहा है। जैन श्रावकों को ये याद रहे कि हम महावीर की संतान है। दया,करुणा,अहिंसा हमारे जैन धर्म के अनिवार्य हिस्से हैं। हमें आदिवासियों को समझाना होगा कि वहां अगर खान-पान,पर्यटन होगा तो उस स्थान की पवित्रता नष्ट होगी।
ऐसा होना न तो जैन समाज के हित में हैं और नही आदिवासी और झारखंड सरकार के हित की बात है। एक तो हमने अपने आंदोलन की दिशा को भटकने दिया और दूसरी ओर आदिवासियों के नेताओं ने बयानबाजी कर उकसाने का काम किया है। आदिवासी भाइयों को भड़काने का काम अब जोरों से चल रहा है।
सम्मेद शिखरजी के आस-पास मेरे कुछ परिचित थे, कुछ पत्रकार बंधु हैं जो ग्राउंड रिपोर्ट कर रहे हैं। उनसे मिली जानकारी बता रही है कि जैन समाज का आंदोलन, जैन समाज के लिए ही उस रूप में घातक हो गया कि जैन समाज को अतिक्रमणकारी ही बना दिया।
करें नई शुरुआत
हम सोशल मीडिया पर नाहक चर्चा को रोक कर एक सार्थक चर्चा का ग्रुप बनाएँ जिसमें भविष्य में शिखरजी कैसा हो, क्या होना चाहिए, इस पर विचार करने की आवश्यकता है। संजय जी ने प्रभावी आंदोलन चलाया लेकिन विश्व जैन संगठन समेत मेरा उन तमाम संगठनों से आग्रह है कि हम संपूर्ण व्यवस्थाओं को हम एकमत हों, एक राय कायम करें।
हम सरकार से बात करेंगे लेकिन आदिवासियों के साथ छेडछाड़ नहीं करेंगे । व्यावहारिक पक्ष है कि हम अपने जीवन में कितनी बार सम्मेद शिखरजी की यात्रा पर जाते हैं, 2 बार,5 बार…मगर आदिवासी तो वहीं पर रहते हैं। सभी लोग ख़राब नहीं होते,कुछ लोगों की राजनीतिक महत्वकांक्षाएं खराब असर दिखाती हैं।
हमें उन आदिवासियों को समझाना है कि हमें वोट नहीं, शिखरजी की पवित्रता चाहिए। जैन समाज के लोगों को वहां सार्थक पहल करनी है। जिससे आदिवासी भाइयों में सम्पन्नता आए। आदिवासी वहां छोटा-मोटा व्यापार करें, उनके बच्चे अच्छी शिक्षा ग्रहण करें। क्या जैन समाज मिलकर यह व्यवस्था नहीं कर सकता ? क्या हम वॉट्सएप पर चर्चाएँ बंद नहीं कर सकते ?
जैन और आदिवासी दोनों का प्रकृति के प्रति कृतज्ञ भाव
हमें आदिवासियों का रहन-सहन का तरीका समझना होगा। कोई मांसाहार क्यों करता है उसके अपने कारण होंगे। वहां खाने-पीने की उस रूप में व्यवस्था न हों,रुपए-पैसे पास न हों तो परिस्थितियां बता नहीं क्या-क्या करवा दें।
मैनें स्वयं ने देखा है कोरोना के वक्त लॉकडाउन लगा था । एक वाहन ने एक कुत्ते को कुचल दिया और उस कुत्ते का मांस एक व्यक्ति खा रहा था। तब उस व्यक्ति की क्या मनोस्थिति होगी, ये समझना जरूरी है । सिर्फ घृणा करने से नहीं बल्कि घृणित कृत्यों और बर्ताव से उस व्यक्ति को दूर कर उसके जीवन में सुधार लाना भी परोपकार है ।
जैन समाज को इस परोपकार से दूर नहीं रहना चाहिए । हमें नहीं पता कि शिखरजी, पारसनाथ में क्या उनकी धार्मिक आस्थाएं होंगी । जैन समाज और आदिवासियों में जीवन शैली में बहुत अंतर है लेकिन एक बात में समानता है वो है प्रकृति के प्रति सम्मान का भाव…।
हमें इसी भाव के माध्यम से सम्मेद शिखर में पवित्रता को बनाए रखना चाहिए। इसी भाव को आदिवासी और जैन समाज एक साथ,एक मंच पर उठाए और राजनेताओं तक यह संदेश जाए कि दोनों समाज पारसनाथ और सम्मेद शिखरजी की पवित्रता के लिए आदिवासी औऱ जैन एक साथ खड़े हो गए हैं।
दोनों समाजों के बीच अब किसी तरह की राजनीति की जरूरत नहीं। मेरा ये मानना है कि भले हम ये नहीं कह सकते कि शिखरजी उनका है। लेकिन हम ये तो कह सकते हैं कि शिखरजी सबका है, प्राणी मात्र का है। हम आदिवासियों के लिए उचित खान-पान और रोजगार की व्यवस्था करें। हम सब मिलकर एक ऐसा निर्णय करें, हम एक जनमत तैयार करें कि इस मामले में कैसे आगे बढ़े ।
जैन समाज के अलग-अलग संगठन बनाएं महासंघ
जैन समाज के भीतर इतनी संस्थाएं हैं। शिखरजी जैसे मामलों में तो तीर्थ कमेटी को आगे आकर जैन समाज के सभी संगठनों की मीटिंग बुलानी चाहिए। देश में जितनी संस्थाएं हैं उनकी मीटिंग बुलाई जानी चाहिए। जिसमें सर्वेसर्वा भले ही तीर्थ कमेटी हो लेकिन उसका दायित्व और ये मनोभावना हो कि समाज के अलग-अलग संगठनों को महत्व देना है।
तीर्थ कमेटी, सभी संगठनों को अलग-अलग काम दें । एक कमेटी मीडिया को संभाले, एक कमेटी जैन समाज के मंदिरों को संभाले, एक कमेटी इन सब आंदोलनों को चलाने और आदिवासियों को जोड़ने के लिए धन की व्यवस्था का काम करे।
मेरा स्पष्ट मानना है कि तीर्थ कमेटी को एक बार यह पहल करनी चाहिए। लाखों जैन श्रावक हमारी और देख रहे हैं । हमने 2019 वाले गजट पर ध्यान नहीं दिया । हमनें 2016 में बनें प्राधिकरण के प्रारूप को भी अनदेखा कर दिया। अन्यथा गैर सरकारी निदेशक पदों पर सभी जैन समुदाय के लोग नियुक्त हो सकते थे।
हो सकता है कि प्राधिकरण में संशोधन करवा कर हम गैर राजनीतिक अध्यक्ष की बजाए राजनीतिक नियुक्ति का प्रावधान करवा कर अपने व्यक्ति को उस प्राधिकरण का अध्यक्ष बना देते । जो हुआ सो हुआ, लेकिन आगे से ऐसा न हो, ये हम सभी की जिम्मेदारी है। जैन समाज सहिष्णु,संयमित,सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलने वाले लोगों का समाज है।
लेकिन हममें पुरुषार्थ भी कम नहीं और अपने धर्म के सामने आए संकट को सामना करने का सामर्थ्य भी कम नहीं । ज़रूरत है बस एकजुट होकर एक जाजम पर आकर बैठने की….
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