समाचार

इस युग में भगवान का रूप बन चुके थे आचार्य श्री : मुनि सुधासागर जी ने अपने प्रवचन में किया गुणानुवाद


 निर्यापक मुनिपुंगव श्री सुधासागर जी महाराज ने धर्मसभा को संबोधित करते हुए आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज को याद करते हुए उनकी इस सदी में महत्ता को प्रतिपादित किया। उन्होंने प्रवचन में विशेष रूप से दिए उपदेश में जीवन के यथार्थ को बताया। पढ़िए सागर से राजीव सिंघई की यह खबर…


सागर। जिंदगी हमारी गुजर न जाए, हमें जिंदगी जीना है, जिंदगी तो निकलती है निकल जाएगी, सूर्य उगता है ढल जाएगा। जो कुछ हाथ में है वह एक दिन चला जाएगा। कुछ भी इस दुनिया में स्थिर नहीं है लेकिन, जिंदगी जीना है निकालना नहीं है। हमें सुबह उठते ही प्लानिंग करना है, हमें जिंदगी की शाम होने के पहले पहले कुछ करना है, जिसमें हमें ऐसा लगे कि मेरी जिंदगी निकली नहीं है, मैं जिंदगी जिया हूं।

एक छोटा सा दीपक शगुन हो जाता है

दिन हमें गुजारना न पड़े, दिन हमारी जिंदगी की बहुत बड़ी उपलब्धि बनकर आवे। हमें जैसा निमित्त मिलता है हम वैसे ढल जाते हैं, खुद की जिंदगी हम अपनी मर्जी से नहीं जी पा रहे हैं, हमारे खुद का जीवन जीवंत नहीं हो पा रहा है जो दूसरों के लिए आदर्श बन जाये। सूर्य के प्रकाश को मंगल नहीं कहा लेकिन, एक छोटा सा दीपक शगुन हो जाता है, छोटा सा दिन हमारी जिंदगी के लिए शगुन बन जाए।

…हमारी जिंदगी कैसी होना चाहिए?

धन कमाने के लिए व्यक्ति को कितना पढ़ना पड़ता है, एक मकान बनाने के लिए व्यक्ति को कितना सोचना पड़ता है। एक शरीर का डॉक्टर 25 साल पढ़ता है तब वह शरीर को स्वस्थ रख पाता है लेकिन, तुमने अपनी जिंदगी को इतना समय दिया? क्या प्लानिंग बनाई है, क्या सोचा है कि हमारी जिंदगी कैसी होना चाहिए। हमारे जीवन का दिन कैसा निकालना चाहिए, इसके लिए हमने कुछ सोचा ही नहीं। हम कर्म की कठपुतली बन जाते हैं, कर्म जैसा नचाता है वैसे हम नाचने लग जाते है।

हम सुख की अनुभूति करने लगते हैं

हमारे अंदर से जीने की कोई ख्वाहिश नहीं उठ रही है, जितनी ख्वाहिशें उठती है सब पराधीन होती है, हमारे कोई भी सुख की कामना है, वह पराधीन है। हमारे हाथ में न सुखी रहना है न दुख का निवारण। भूख लगती है हम रोटी के अधीन हो जाते हैं, रोटी मिल जाती है हम सुख की अनुभूति करने लगते हैं लेकिन कभी यह अनुभूति नहीं आती कि सब कुछ खत्म हो गया लेकिन, मैं तो हूं।

जब व्यक्ति किसी को आदर्श बनाता है…

तुम्हारी जिंदगी में वह महत्वपूर्ण नहीं है कि हमारे पास कितना धन है, कितना परिवार है, कितना व्यापार है, हमारा महत्वपूर्ण समय है कि हमारे पीछे कितने लोग चलने की सोच रहे। जब व्यक्ति किसी को आदर्श बनाता है तो वह सबकुछ पीछे उसको समर्पित कर देता है। हमने जिंदगी में जो कुछ किया, क्या कोई हमारे पीछे चल रहा, जिस चीज को पाया, क्या हमारे पाना किसी के लिए शगुन बन रहा है।

जिंदगी का निर्देशक कौन है?

तुम्हारा कितनों पर विश्वास है, यह महत्वपूर्ण नहीं है, तुम पर कितनों लोग विश्वास करते हैं, ये महत्वपूर्ण है। यदि अच्छा भगवान खोज लिया तो तुम्हारा अनंत संसार चुल्लू भर रह जाएगा। सबसे महत्वपूर्ण है कि तुम्हारी जिंदगी का निर्देशक कौन है? क्या तुम ऐसी व्यक्ति को खोज पाए जिसको खोजने के बाद में किसी को खोजने की जरूरत न पड़े।

ऐसा भाव आ जाए मंदिर भगवान का है

जब तुम्हारे पास कुछ भी न हो और तुम्हारे आदर्श के पास जो भी कुछ है, उसमें तुम्हें अनुभव आ जाए कि यह सब कुछ मेरा है। तुम्हारे पास कुछ भी नहीं है लेकिन तुम्हारे मालिक, पिता, गुरु और भगवान के पास जो कुछ है वह सबकुछ मेरा है, ऐसी अनुभूति जैसे एक बेटा अपने मित्र को अपने पिता का मकान दिखाते हुए कहता है कि यह मकान मेरा है, यही आत्मीयता और बेटे तथा पिता का संबंध है। इसी उदाहरण को लेकर कभी ऐसा भाव आ जाए मंदिर भगवान का है और कोई पूछे कि मंदिर किसका है तो कहे मेरा मंदिर है, मेरे भगवान है।

किसी का मंगल बन सकूं

वेदी पर बैठे भगवान को देख रहा है और उस अनुभव हो जाता है कि मैं खुद चैतन्य भगवान आत्मा हूँ। भगवान जैसा तू मेरे लिए मंगल बना है, वैसे मैं भी किसी का मंगल बन सकूं। जैसा आज मैंने तेरी वसीयत पाया है, मैं भी किसी के लिए वसीयत को दे सकूं। जो कमाई तूने की है, कल मैं भी कमाई करूं।

आचार्य श्री को पढ़ लो, वही तो शास्त्र

तुम्हें प्रयास करना है यह नहीं कि तुम किसके पीछे चल रहे हो, यह सोचो कि कोई तुम्हारे पीछे चल रहा है कि नहीं। आचार्य श्री जी की सबसे बड़ी विशेषता थी उनके पीछे दुनिया चल रही थी। तुम अनाथ हुए हो बहुत बार, यह कोई बड़ी बात नहीं है लेकिन, तुमने कितनों को अनाथ किया है यह बहुत बड़ी बात है। क्या तुम्हारे जाने के बाद ऐसी फीलिंग हो रही है कि हमारा सब कुछ चला गया, ये है जिंदगी की कमाई। कौन व्यक्ति मरा है इसका निर्णय जाने वाले की अपेक्षा नहीं रोने वाले की अपेक्षा किया जाता है। जितने ज्यादा लोगों को अनाथपने की अनुभूति महसूस हो, समझ लेना उतना बड़ा ही नाथ मरा है। आचार्य श्री जब दुनिया में थे, अपन को एक ही बात लगती थी कि भगवान मेरी दुनिया में है। सारी समाज के लिए इस कलयुग में भगवान का रूप बन चुके थे आचार्य श्री। लोगों ने शास्त्रों को पढ़ना बंद कर दिया बोले क्या पढ़ना आचार्य श्री को पढ़ लो, वही तो शास्त्र हैं। उनके मुख से जो निकला वही तो जिनवाणी है। उनका आचरण ही आगम है। हर व्यक्ति ये मानने लगा था कि उन्होंने जो सोच लिया है उससे आगे सोचने वाला दुनिया मे कोई व्यक्ति है नहीं।

इसलिए जैन दर्शन में देव दर्शन कहा

हमारे आचार्य श्री कुछ नहीं बोलते थे लेकिन उनकी मुद्रा बहुत शुभ थी, शगुन था। एक व्यक्ति ऐसा है जिसके पास एक दरवाजा है, जहां जाता है तो कुछ नहीं मिलता मात्र दर्शन करने के बाद ही वो खुश हो जाता है इसलिए जैन दर्शन में देव दर्शन कहा। कैसी सातिशय साधना की पूज्य गुरुदेव ने कि लोग उनसे कुछ नहीं चाहते थे, मात्र दर्शन करते थे और धन्य हो जाते थे। लोगों को उन्हें नमोस्तु करने में आनंद आता था, महाराज को मैंने जी भर देख लिया, ये आनंद था। जब कोई मुझे देख रहा है तो मुझे अच्छा लग रहा है यह राग है, जब वह बिल्कुल भी नहीं देख रहा है और हमारी पलक भी नहीं झपक रहे हैं तो यह वीतराग है।

आप को यह कंटेंट कैसा लगा अपनी प्रतिक्रिया जरूर दे।
+1
1
+1
0
+1
0

About the author

Shreephal Jain News

Add Comment

Click here to post a comment

× श्रीफल ग्रुप से जुड़ने के लिए यहाँ क्लिक करें