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धर्मसागरजी महाराज के 112वें वर्षवर्धन अवतरण पर भावभीनी विनयांजलिः अक्षुण्ण पट्ट परंपरा के तृतीय पट्टाचार्य


अक्षुण्ण पट्ट परंपरा के तृतीय पट्टाचार्य धर्मशिरोमणी आचार्यश्री 108 धर्मसागरजी महाराज के 112 वें वर्षवर्धन अवतरण वर्ष 12 जनवरी को भावभीनी विनयांजलि प्रस्तुत की जा रही है। आचार्यश्री चंद्रसागरजी महाराज से अल्प आयु में ’शुद्ध जलग्रहण करने का नियम लिया था। उनसे जुड़ी जानकारी को यहां क्रमबद्ध रखा जा रहा है। पढ़िए इंदौर की यह पूरी खबर…


इंदौर। चारित्र चक्रवर्ती प्रथमाचार्य श्री 108 शांतिसागरजी महाराज की अक्षुण्ण पट्ट परंपरा के तृतीय पट्टाचार्य धर्मशिरोमणी आचार्यश्री 108 धर्मसागरजी महाराज के 112 वें वर्षवर्धन अवतरण वर्ष 1914 विक्रम संवत 1970 पौष शुक्ल पूर्णिमा 12 जनवरी 1914 पर भावभीनी विनयांजलि प्रस्तुत की जा रही है। उनसे जुड़ी जानकारी को यहां क्रमबद्ध रखा जा रहा है। ताकि धर्मप्रेमी जैन समाज की जनता के ज्ञान में अभिवृद्धि करेगी। इस जानकारी को विभिन्न ग्रंथों से संजोया है इंदौर के राजेश पाचोलिया ने।

आचार्यश्री धर्मसागरजी महाराज का जीवन परिच

उनका दीक्षा पूर्व नाम श्री चिरंजीलाल कजोडीमल था। उनका जन्म पौष शुक्ल पूर्णिमा संवत 1970 और 12 जनवरी 1914 को श्री धर्मनाथ भगवान के केवलज्ञान कल्याणक के अवसर पर हुआ था। जन्म स्थान गंभीरा राजस्थान था। उनके पिता बख्तावरमल और माता उमराव देवी थीं। उन्होंने आचार्यश्री चंद्रसागरजी महाराज से 15 वर्ष की अल्प आयु में ’शुद्ध जलग्रहण करने का नियम लिया था।

प्रतिमाओं की प्रतिष्ठापना की गई

मुनिश्री धर्मसागरजी ने अनेक स्थानों पर प्रतिमाओं की प्रतिष्ठापना करवाई। जिसमें दो प्रतिमाएं आचार्य श्री वीर सागरजी महाराज की इंदौर में और सात प्रतिमाएं आचार्यश्री चंद्रसागरजी महाराज की बड़नगर में प्रतिष्ठापित करवाईं। आचार्यश्री की क्षुल्लक दीक्षा चैत्र कृष्ण 7 संवत 2000 में दीक्षा गुरु आचार्यश्री चंद्रसागरजी महाराज से महाराष्ट्र के बालूज में हुई। क्षुल्लक के बाद उनका नाम क्षुल्लकश्री भद्रसागरजी महाराज था।

दीक्षा उपरांत नामकरण हुआ

उन्होंने एलक दीक्षा वैशाख माह संवत् 2007 में दीक्षा गुरु आचार्य श्री वीर सागरजी महाराज से फुलेरा राजस्थान में ली। उनकी मुनि दीक्षा कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी संवत 2008 में आचार्य श्री वीर सागरजी महाराज के सानिध्य में हुई और नाम मिला मुनिश्री धर्म सागरजी महाराज। उनका दीक्षा स्थल फुलेरा राजस्थान में रहा। आचार्य की पदवी उन्हें फाल्गुन शुक्ल अष्टमी 24 फरवरी 1969 में श्री महावीर जी राजस्थान में मिली और तब से उन्हें तृतीय पट्टाधीश आचार्य श्री धर्म सागरजी महाराज के रूप में जाना गया।

नूतन आचार्यश्री ने 11 दीक्षा प्रदान की

गौरतलब है कि उस ही दिन नूतन आचार्य श्री ने 11 दीक्षा प्रदान की। मुनिश्री महेंद्रसागरजी, श्री अभिनंदन सागरजी, श्री संभव सागरजी, श्री शीतलसागरजी, श्री यतींद्रसागरजी, श्री वर्द्धमान सागरजी, आर्यिका श्री गुणमतिजी, श्री विद्यामतिजी, क्षुल्लक श्री गुणसागरजी, श्री बुद्धिसागरजी, क्षुल्लिकाश्री अभयमतिजी रहे।

आचार्यश्री ने आर्यिका दीक्षा 21 दी 

आचार्यश्री ने 21 आर्यिका दीक्षा प्रदान की। इसमें प्रथम आर्यिका श्री अनंतमति जी, सन 1966, खुरई, आर्यिका श्री अनंतमति जी, आ श्रीअभयमति जी, आ श्री विद्यामतिजी, आ श्री संयममति जी, आ श्री विमलमतिजी, श्री सिद्धमतिजी, श्री जयमति जी, श्री शिवमति जी, श्री नियममति जी, श्री समाधिमति जी, श्रीनिर्मलमति जी, श्री समयमति जी, श्री गुणमतिजी, श्री प्रवचनमति, श्री श्रुतमति जी, श्रीसुरत्न मति जी, श्री शुभमति जी, श्री धन्यमति जी, श्री चेतनमति जी, श्री विपुलमति जी, श्री रत्नमति जी, ऐलक दीक्षा श्री उत्तम सागर जी साबला में प्रदान की। उन्होंने क्षुल्लक दीक्षा 17 प्रदान की है। श्री दयासागर जी, श्री निर्मल सागर जी,श्री संयम सागर जी, श्री बोधसागर जी,श्री बुद्धि सागर जी,श्री भूपेंद्रसागर जी,श्री उत्तम सागर जी,श्री निर्वाणसागर जी, श्री गुणसागर जी,श्री वैराग्य सागर जी,श्री पूरण सागर जी, श्री संवेगसागर जी,श्री सिद्ध सागर जी, श्री योगेंद्रसागर जी, श्री करुणासागर जी, श्री देवेंद्र सागर जी, श्री परमानंद सागर जी को दीक्षा प्रदान की है। क्षुल्लिका दीक्षा 5 प्रदान की। जिनमें प्रथम श्रीदया मति जी सन 1964 खुरई, विशेष आप आचार्य श्री शांति सागर जी छाणी की गृहस्थ अवस्था की बहन थीं। श्री यशोमतिजी, श्री बुद्धिमति जी, श्रीअनंतमति जी सभी साधुओं के क्रम में अंतर संभावित हैं। कुछ नाम छूट रहे हैं।

आचार्यश्री से जुडे संस्मरण इस प्रकार हैं। 

आपने अभिनंदन ग्रंथ नहीं किया वरन फटकार लगाई,। कंकड़ से माला फेरते थे। माला की रखवाली कौन करे। 3 संवत 2018 में शाहगढ़ चातुर्मास में मधुमक्खी के हमले का पूर्वाभास हुआ। सागर के निकट विश्राम स्थल पर सर्प पूरी रात्रि पटिये के नीचे रहा। संवत 2016 में वीर गांव अजमेर में श्रावक का दर्द आशीर्वाद से ठीक किया। धर्म के बिना ज्ञान की कोई कीमत नहीं, बिना ज्ञान के धर्म भी टिक नहीं सकता है। साधु के चारगुण इंद्रिय आहार कषाय और निंद्रा विजय। आचार्य पद से साधु ही ठीक थे दिनभर नमोस्तु करने वालों को आशीर्वाद देने में समय हो जाता है, सन 1975 में सहारनपुर के चातुर्मास में आजीवन ब्रह्मचर्यव्रत लेने वाले को पिच्छी लेने-देने का सौभाग्य प्रदान किया। सिंह की दहाड़ संवत 2075 बिजोलिया रास्ते में नदी किनारे संघ का विश्राम नदी में पानी पीकर सिंह दहाड़ कर चले गया। चश्मे का भी परिग्रह नहीं, सिंहासन पर नहीं बैठे। आचार्य श्री धर्म सागर जी के अनेक शिष्य हुए है किंतु उल्लेखनीय यह है कि वर्तमान आचार्य श्री विद्या सागर जी के गृहस्थवस्था के पिता जी, माताजी और दोनों बहनों ने आपसे मुजफ्फर नगर में सन 1976 में दीक्षा ली और मुनि श्री मल्ली सागर जी, आर्यिका श्री समयमति जीआर्यिका श्री नियममति जी, तथा आर्यिका श्री प्रवचन मति जी के रूप में धर्म साधना की।

संयोग यह भी रहा 

दादा दादी पिता पोता मुनि आर्यिका ने आचार्य श्री धर्मसागर जी से सन 1982 में क्षुल्लक जी ने दीक्षा ली नामकरण मुनि श्री जिनेंद्र सागर जी हुआ। रतनी देवी रतन लाल जी ने भी आर्यिका श्री स्वयादवादमति माताजी से आर्यिका दीक्षा लेकर आर्यिका श्री सिद्धमति जी नामकरण हुआ। रतनलाल जी कानपुर नागौर के पुत्र नवरत्न मल ने आचार्य श्री वर्द्धमान सागर जी से नेमिनगर जयपुर में 10 फरवरी सन 2000 को मुनि दीक्षा ली और मुनि श्री देवेंद्र सागर जी बने। श्री नवरत्न मल जी के पुत्र सुशील ने भी आचार्य श्री पुष्प दंत सागर जी से दीक्षा लेकर मुनि श्री पीयूष सागर जी बने हैं। मुनि श्री वर्तमान में आचार्य श्री प्रसन्न सागर जी के संघस्थ हैं

कुछ खास बातें

साधु जीवन 43 वर्ष का। चातुर्मास 43 किए। क्षुल्लक अवस्था मंे चातुर्मास

1944 अडूल ,1945 झालरापाटन, 1946 रामगंजमंडी,1947 नेनवा

1948 सवाईमाधोपुर, 1949 नागौर, 1950 सुजानगढ़, मुनि अवस्था में चातुर्मास, 1951 फुलेरा 1952 ईसरी ,1953 नागौर,1954 निवाई

1955 टोडारायसिंह,1956 जयपुर,1957 जयपुर,1958 अजमेर,1959 आंनदपुरकालू, 1960 बूंदी,1961 शाहगढ़

1962 सागर,1963 खुरई, 1964 इंदौर, 1965 झालरापाटन, 1966 टोंक 1967 बूंदी, 1968 बिजोलिया में आचार्य पद में चातुर्मास 1969 जयपुर, 1970 टोंक, 1971अजमेर,1972 लाडनूं, 1973 सीकर,,1974 देहली 1975 सहारनपुर, 1976 बड़ौत,1977 किशनगढ़,1978 उदयपुर ,1979 सलूम्बर,1980 केशरिया जी,1981 बांसवाड़ा 1982 लोहारिया,1983 प्रतापगढ़, 1984 अजमेर, 1985 लुड़वा, 1986 सुजानगढ़ में हुआ। आचार्यश्री ने समाधि वैशाख कृष्ण 9 नवमी विक्रम संवत 2044 सन् 1987 में ली। उस दिन श्री मुनिसुब्रतनाथ भगवान का केवलज्ञान कल्याणक था। समाधि स्थल सीकर, राजस्थान रहा। यह जानकारी विभिन्न ग्रंथो से संकलित की है उन विद्वान लेखकों के प्रति आभार सहित यह जानकारी परिचय केवल धर्म प्रभावना के लिए लिखी गई है।

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