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Life Management-7 स्पर्धा में होता है अपनी योग्यता को बढ़ाने का संकल्प : प्रतिस्पर्धा में पलता है द्वेष


सूत्र वाक्य छोटे होते हैं लेकिन उनका निर्माण बडे़ अनुभवों के आधार पर होता है। महापुरुषों ने जो कुछ भी कहा, सूत्रात्मक ही कहा। सूत्र वाक्य ही सूक्तियां कहलाती हैं। चिन्तन से सूत्रों का अर्थ खुलता है। धर्म के अन्तिम संचालक, तीर्थ के प्रवर्तक, चौबीसवें तीर्थंकर भगवान् महावीर स्वामी हुए हैं। यद्यपि वह मुख्यतया आत्मज्ञ थे, अपने निजानन्द में लीन रहते थे, फिर भी वह सर्वज्ञ थे। मुनि श्री प्रणम्य सागर जी महाराज की पुस्तक खोजो मत पाओ व अन्य ग्रंथों के माध्यम से श्रीफल जैन न्यूज लाइफ मैनेजमेंट नाम से नया कॉलम शुरू कर रहा है। इसके सातवें भाग में पढ़ें श्रीफल जैन न्यूज के रिपोर्टर संजय एम तराणेकर की विशेष रिपोर्ट….


सातवां सूत्र

स्पर्धा करो, प्रतिस्पर्धा नहीं

– स्पर्धा एक कांच की दीवार है जिसमें आर-पार दिखाई देता है और प्रतिस्पर्धा एक ईंट-पत्थर की दीवार है जिसमें हमें बहुत बड़ी रुकावट दिखाई देती है।
– स्पर्धा में हमारा विजन (Vision) स्पष्ट होता है और प्रतिस्पर्धा में दीवार के उस ओर क्या है, इस बात का भय रहता है।
– स्पर्धा में अपनी योग्यता को बढ़ाने का संकल्प है, प्रतिस्पर्धा में दूसरे की योग्यता को मिटाने का विकल्प है।
– स्पर्धा व्यक्तित्व को निखार कर सन्तोष देती है, प्रतिस्पर्धा को भार बनाकर रोष देती है।
– स्पर्धा में एक लक्ष्य है आगे बढ़ने का और प्रतिस्पर्धा में एक लक्ष्य है आगे नहीं बढ़ने देने का।
– स्पर्धा में आत्मविश्वास बढ़ता है और अन्त आत्म संतोष पर होता है, प्रतिस्पर्धा में भय बढ़ता है और अन्त अपने तथा दूसरे की ग्लानि पर होता है।
– स्पर्धा में गुणात्मक परिवर्तन है, प्रतिस्पर्धा में ऋणात्मक विघटन है।
– स्पर्धा असफल होकर भी सफल है और प्रतिस्पर्धा सफल होकर भी असफल।
– स्पर्धा कहीं भी पहुंचकर सेल्फ गाइड (Selfguide) का काम करती है और प्रतिस्पर्धा कहीं भी पहुंचाकर सुसाइड (Suicide) करा सकती है।
– स्पर्धा में प्रेम पल सकता है खुद से और दूसरों से, किन्तु प्रतिस्पर्धा में द्वेष पलता है।

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