सन् 1934 की शरद पूर्णिमा के शुभ दिन जब चन्द्रमा की शुभ्र छटा सम्पूर्ण धरा को अपने आवेश में समेटे थे, तब उ.प्र. के बाराबंकी जनपद के ग्राम टिकेतनगर में बाबू छोटेलाल जी जैन के घर एक कन्या का जन्म हुआ। यही कन्या आगे चलकर जैन समाज की सर्वोच्च साध्वी ज्ञानमति माताजी बनीं। पहले मात्र 18 वर्ष की अल्प आयु में ही शरद पूर्णिमा के दिन ही मैना ने आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज से सन् 1952 में आजन्म ब्रह्मचर्य व्रतरूप सप्तम् प्रतिमा एवं गृहत्याग के नियमों को धारण कर लिया। भगवान महावीर के पश्चात् 2600 वर्ष के इतिहास में किसी भी साध्वी ने इतने विपुल साहित्य का सृजन नहीं किया। पढ़िए यह विशेष आलेख….
इंदौर। परमपूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी देश की प्रज्ञावंत विदुषी आर्थिका माताजी हैं और जैन धर्म समाज, साहित्य और संस्कृति में उनका अतुलनीय योगदान है। वर्तमान में आप अयोध्या नगरी में विराजमान हैं। माताजी स्वयं आगम का सार हैं, जिन्होंने 500 ग्रंथों का लेखन किया है।
जीवन परिचय
22 अक्टूबर सन् 1934, शरद पूर्णिमा के दिन टिकैत नगर ग्राम (जि. बाराबंकी, उ.प्र.) के श्रेष्ठी श्री छोटेलाल जैन की धर्मपत्नी मोहिनी देवी के दांपत्य जीवन के प्रथम पुष्प के रूप में ‘मैना’ का जन्म परिवार में नवीन खुशियां लेकर आया था। मां को दहेज में प्राप्त ‘पद्मनंदिपंचविंशतिका’ ग्रन्थ के नियमित स्वाध्याय एवं पूर्वजन्म से प्राप्त दृढ़ वैराग्य संस्कारों के बल पर मात्र 18 वर्ष की अल्प आयु में ही शरद पूर्णिमा के दिन मैना ने आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज से सन् 1952 में आजन्म ब्रह्मचर्य व्रतरूप सप्तम् प्रतिमा एवं गृहत्याग के नियमों को धारण कर लिया। उसी दिन से इस कन्या के जीवन में 24 घंटे में एक बार भोजन करने के नियम का भी प्रारंभीकरण हो गया।
बनीं क्षुल्लिका वीरमती
नारी जीवन की चरमोत्कर्ष अवस्था आर्यिका दीक्षा की कामना को अपनी हर सांस में संजोये ब्र. मैना सन् 1953 में आचार्य श्री देशभूषण जी से ही चैत्र कृष्णा एकम् को श्री महावीरजी अतिशय क्षेत्र में ‘क्षुल्लिका वीरमती’ के रूप में दीक्षित हो गईं। सन् 1955 में चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज की समाधि के समय कुंथलगिरी पर एक माह तक प्राप्त उनके सान्निध्य एवं आज्ञा द्वारा ‘क्षुल्लिका वीरमती’ ने आचार्य श्री के प्रथम पट्टाचार्य शिष्य-वीरसागर जी महाराज से सन् 1956 में ‘वैशाख कृष्णा दूज’ को माधोराजपुरा (जयपुर-राज.) में आर्यिका दीक्षा धारण करके ‘आर्यिका ज्ञानमती’ नाम प्राप्त किया।
लेखन कार्य निरंतर जारी
भगवान महावीर के पश्चात् 2600 वर्ष के इतिहास में किसी भी साध्वी ने इतने विपुल साहित्य का सृजन नहीं किया। लेकिन दिव्यशक्ति से ओत-प्रोत गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने एक नहीं, दो नहीं लगभग विभिन्न विधाओं में लगभग 500 ग्रंथों का लेखन करके समाज को दे दिया। लेखनी आज भी बंद नहीं है। निरंतर लेखन का कार्य प्रारंभ है। पूज्य माताजी के द्वारा समयसार, नियमसार इत्यादि की हिन्दी-संस्कृत टीकाएं, जैनभारती, ज्ञानामृत, कातंत्र व्याकरण, त्रिलोक भास्कर, प्रवचन निर्देशिका इत्यादि स्वाध्याय ग्रंथ, प्रतिज्ञा, संस्कार, भक्ति, आदिब्रह्मा, आटे का मुर्गा, जीवनदान इत्यादि जैन उपन्यास, द्रव्यसंग्रह-रत्नकरण्ड श्रावकाचार इत्यादि के हिन्दी पद्यानुवाद व अर्थ, बाल विकास, बालभारती, नारी आलोक आदि का अध्ययन किसी को भी वर्तमान में उपलब्ध जैन वाङ्गमय की विविध विधाओं का विस्तृत ज्ञान कराने में सक्षम है। पूज्य माताजी ने जैनशासन के सर्वप्रथम सिद्धांत ग्रंथ ‘षट्खण्डागम’ की सोलहों पुस्तकों के सूत्रों की संस्कृत टीका ‘सिद्धांत चिंतामणि’ का लेखन करके महान कीर्तिमान स्थापित किया है।
दो बार डी.लिट् की उपाधि
दो बार डी.लिट् की उपाधि से अलंकृत-किसी महाविद्यालय, विश्वविद्यालय आदि में पारम्परिक डिग्रियों को प्राप्त किये बिना मात्र स्वयं के धार्मिक अध्ययन के बल पर विदुषी माताजी ने अध्ययन, अध्यापन, साहित्य निर्माण की जिन ऊंचाइयों को स्पर्श किया, उस अगाध विद्वत्ता के सम्मान हेतु डॉ. राम मनोहर लोहिया अवध विश्वविद्यालय, फैजाबाद द्वारा 05 फरवरी 1995 को डी.लिट्. की मानद् उपाधि से पूज्य माताजी को सम्मानित करके स्वयं को गौरवान्वित अनुभव किया गया तथा दिगम्बर जैन साधु-साध्वी परम्परा में पूज्य माताजी यह उपाधि प्राप्त करने वाली प्रथम व्यक्तित्व बन गईं। पुन: इसके उपरांत 08 अप्रैल 2012 को पूज्य माताजी के 57वें आर्यिका दीक्षा दिवस के अवसर पर तीर्थंकर महावीर विश्वविद्यालय, मुरादाबाद में विश्वविद्यालय का प्रथम विशेष दीक्षांत समारोह आयोजित करके विश्वविद्यालय द्वारा पूज्य माताजी के करकमलों डी. लिट्. की मानद उपाधि प्रदान की गई।
निर्दोष आर्यिका चर्या में निमग्न
विभिन्न आचार्यों एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा पूज्य माताजी को न्याय प्रभाकर, आर्यिकारत्न, आर्यिकाशिरोमणि, गणिनीप्रमुख, वात्सल्यमूर्ति, तीर्थोद्धारिका, युगप्रवर्तिका, चारित्रचन्द्रिका, राष्ट्रगौरव, वाग्देवी इत्यादि अनेक उपाधियों से अलंकृत किया गया है, किन्तु पूज्य माताजी इन सभी उपाधियों से निस्पृह होकर अपनी आत्मसाधना को प्रमुखता देते हुए निर्दोष आर्यिका चर्या में निमग्न रहने का ही अपना मुख्य लक्ष्य रखती हैं। पूज्य माताजी की प्रेरणा से विकसित तीर्थ-पूज्य माताजी की पावन प्रेरणा एवं आशीर्वाद से विकसित अनेक तीर्थ हैं। जिनमें तीर्थंकर भगवन्तों की कल्याणक भूमियां मुख्य हैं।
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