सूत्र वाक्य छोटे होते हैं लेकिन उनका निर्माण बडे़ अनुभवों के आधार पर होता है। महापुरुषों ने जो कुछ भी कहा, सूत्रात्मक ही कहा। सूत्र वाक्य ही सूक्तियां कहलाती हैं। चिन्तन से सूत्रों का अर्थ खुलता है। धर्म के अन्तिम संचालक, तीर्थ के प्रवर्तक, चौबीसवें तीर्थंकर भगवान् महावीर स्वामी हुए हैं। यद्यपि वह मुख्यतया आत्मज्ञ थे, अपने निजानन्द में लीन रहते थे, फिर भी वह सर्वज्ञ थे। मुनि श्री प्रणम्य सागर जी महाराज की पुस्तक खोजो मत पाओ व अन्य ग्रंथों के माध्यम से श्रीफल जैन न्यूज लाइफ मैनेजमेंट नाम से नया कॉलम शुरू कर रहा है। इसके पांचवे भाग में पढ़ें श्रीफल जैन न्यूज के रिपोर्टर संजय एम तराणेकर की विशेष रिपोर्ट….
पांचवां सूत्र
जियो और जीने दो
स्वयं भी जियो और दूसरों को भी जीने दो
‘जियो और जीने दो‘ शब्द का उल्लेख सबसे पहले 1622 में जेरार्ड डी मालिनेस ने व्यापार कानून पर लिखी गई एक किताब में किया था। उन्होंने इसमें डच कहावत ‘ल्यूएन एंडी लाएटेन ल्यूएन‘ का ज़िक्र किया था, जिसका मतलब है ‘जियो और दूसरों को जीने दो‘। बाद में,1678 में जॉन रे ने अपनी किताब में भी इस कहावत को शामिल किया था। कुल मिलाकर इसका निचोड यह निकलकर आता हैं कि इस धरा पर जिनका जीवन है उन्हें अपने हिसाब से जीवन जीने का अधिकार है। विचारों में सभी की भिन्नता हो सकती है। एक-दूसरे पर विचार थोपे नहीं जा सकते। इसलिए स्वयं भी जियो और दूसरों को भी जीने दो। यहीं इसका मूल हैं।
बारह वर्ष की तपस्या से पाया सन्देश
यह एक मात्र सन्देश है, जो महावीर ने बारह वर्ष की दीर्घकालीन तपस्या से पाया। चाहे पशु हो, पक्षी हो, कीड़ा-मकौड़ा हो, अपना हो, पराया हो, इस देश का हो या किसी अन्य देश का हो, जीव मात्र, प्राणी मात्र के प्रति महावीर की करुणा थी, उनके लिए बस एक ही भावना थी ‘तुम सब जिओ और सभी को जीने दो‘।
सर्प ने महावीर से सीख ली।
एक बार महावीर भगवान, एक रास्ते से गुजर रहे थे। लोगों ने उन्हें मना किया कि वे इस रास्ते पर न जाएं। आगे एक भयानक जंगल है, जिसमें विषैला सर्प रहता है। महावीर उसी रास्ते से चले। सर्प मिला। उसने में काट लिया। कहते हैं कि उनके पैर से दूध की धारा निकल पड़ी। सर्प सोच में पड़ गया, मेरे बुरा करने पर भी इन्होंने मेरा बुरा नहीं किया। दूध के जैसा रक्त महावीर की सभी प्राणियों के प्रति करुणा के कारण था। सर्प उनकी महानता से इतना प्रभावित हुआ कि उसने लोगों को काटना छोड़ दिया। परिणाम स्वरूप लोगों ने उसे निर्विष समझकर कंकड़ पत्थर मारे। लहूलुहान होने पर भी सर्प ने अन्त तक क्षमा भाव धारण किया। जब लोगों ने उससे पूछा तो उसने कहा-‘यह क्षमा मैंने महावीर से सीखी है।‘
रक्षण करने वाला महावीर और भक्षण करने वाला रावण
जब जीवन में उल्लास हो, आनन्द हो, अपने काम से प्रसन्नता हो, उन्नति की ललक हो, सबसे प्रेम हो, पड़ोसी इंसान दिखता हो, हर मजहब में सिर नजर आता हो, ईश्वर, अल्लाह, जिन, बुद्ध सबका रूप एक लगे तो समझना तुम जी रहे हो और किसी का दिल न दुःख जाए इतना कोमल हृदय होते समझना तुम सभी को जीने की राह पर चला रहे हो। किसी भी देवता के नाम पर, किसी भी गुरु की खुशामद में, किसी भी खुशी या बधाई में किसी भी प्राणी का जीवन बर्बाद मत करो। किसी की खुशी के लिए किसी और की खुशी की प्राणों की बलि मत चढ़ाओ। ओ मानव ! जीते हुए को मारने वाला दानव है, राक्षस है और मरते को बचाने वाला मानव है, देवता है। रक्षण करने वाला महावीर है, हनुमान है, दयावान है और भक्षण/शोषण करने वाला रावण है, हैवान है।
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