जब जब हमें अच्छेपन की फीलिंग हो कि मुझे अब कोई दुख नहीं है, समझ लेना तुम्हारे बहुत जल्दी दुख आने वाला है। मेरा परिवार बहुत अच्छा है कोई परेशानी नहीं, बस सब गड़बड़ होने वाला है। मेरी आँख ने कभी आँसू नहीं देखा, बस आने ही वाला है क्योंकि तुम उसे चीज के लिए अहंकार कर रहे हो जो कर्म के अधीन है। बिना ऋण के छोटा धंधा करना ठीक है, ऋण लेकर के बड़ा धंधा करना भी ठीक नहीं। यह बात मुनि श्री सुधासागर महाराज ने प्रवचन में कही। पढ़िए राजीव सिंघाई की विशेष रिपोर्ट…
सागर। जब जब हमें अच्छेपन की फीलिंग हो कि मुझे अब कोई दुख नहीं है, समझ लेना तुम्हारे बहुत जल्दी दुख आने वाला है। मेरा परिवार बहुत अच्छा है कोई परेशानी नहीं, बस सब गड़बड़ होने वाला है। मेरी आँख ने कभी आँसू नहीं देखा, बस आने ही वाला है क्योंकि तुम उसे चीज के लिए अहंकार कर रहे हो जो कर्म के अधीन है। बिना ऋण के छोटा धंधा करना ठीक है, ऋण लेकर के बड़ा धंधा करना भी ठीक नहीं। यह बात मुनि श्री सुधासागर महाराज ने प्रवचन में कही। उन्होंने कहा कि इसी प्रकार कोई कर्म हमारे लिए जो भी सुख दे रहा है यह लोन है, ऋण है।
सबसे बड़ा व्यक्ति कौन है जो ऋण देने वाला दे रहा है और कहता है मुझे नही चाहिए। त्याग की पहली शुरुआत है- जो मेरा था नहीं, जो मेरा है नहीं और जो मेरा होगा नहीं, मैं ऐसी वस्तु के प्रति राग भाव नहीं करूँगा, यदि यही तक संतुष्ट रहे तो तुम्हें स्वर्ग मिल जाएगा लेकिन उसके बाद त्याग करना है- तुम्हारे आने के पहले माँ-बाप से जितने सम्बन्धी थे, वो सारे तुम्हारे संबंधी तुम्हारे हो गए। जो तुमने आकर बनाए हैं और सबसे पहले उनकी जरूरत नहीं थी, उन सम्बन्धो को त्याग करना। तीसरे वो संबंध है जो तुमने आकर के खुद बनाए हैं, तुम्हारी जरूरत थी, परिवार की सहमति थी कि तुम्हे कमाना पड़ेगा। त्याग कहता है सबसे पहले आरंभ से मुक्ति पाओ। पाप के लिए जो पाप किया जाए, जो संसारी जीवों को खुश करने के लिए किया जाए, उसका नाम है आरंभ।
पाप को छोड़ना जरूरी
मुनि श्री ने कहा कि तुम पाप करते हो तो करो, कम से कम धर्म की क्रिया से पाप मत करो। क्रिया धार्मिक है, यदि उसके पीछे संसार है तो वह क्रिया भी आरंभ में आएगी। जो पाप के लिए, संसार के लिए, संसारी व्यक्ति को खुश करने के लिए वैलिड है वो सब क्रियाएं आरंभ के अंतर्गत आती है जैसे रावण ने पाप के लिए धर्म किया। सम्यकदृष्टि पाप नहीं छोड़ेगा लेकिन भूलकर भी पाप के लिए धर्म नहीं करेगा जैसे अंजनचोर, रावण से बड़ा पापी था, फिर उसका पाप कैसे कट गया, मात्र एक कारण- उसने पाप तो किया है लेकिन पाप की सिद्धि के लिए धर्म नहीं किया।
तुम पाप को न छोड़ सको तो कम से कम पाप के लिए धर्म को, भगवान को, गुरु को बीच मे मत लाना। चोरी करना है किसी सज्जन, धर्मात्मा के घर में मत करना, चोर के घर में चोरी करना, पापियों के साथ पाप करना लेकिन धर्म को बीच में मत लाना, कल्याण के रास्ते तुम्हारे लिए खुले रहेंगे। यदि इतना तुमने कर लिया तो आज आकिंचन्य की शुरुआत हो जाएगी। श्रावक कहता है कि मैंने जो जो आने के बाद जोड़ा है, वो सब में जाने के पहले छोडूंगा- पत्नी, व्यापार सब में लगा लेना। दोनों मियाँ बीवी ने शादी की है, जिस दिन शादी की है, उसी दिन निर्णय करो ये बंधन कब तक रहेगा। यदि यह संकल्प किए बिना नहीं जाओगे तो तुम्हारी सद्गति पर संदेह है। घर से निकलना नहीं है, राग का संबंध छोड़ना है, एक घर मे साधर्मी बनकर रहेंगे। व्यापार शुरू किया है, यह बताओ कब तक दुकान पर बैठोगे, अभी संकल्प करो, इतने वर्ष तक मैं व्यापार करूँगा।
भावलिंगी का आकिंचन्य धर्म
उन्होंने कहा कि अब आगे तुम्हें उन्हें छोड़ना है जो तुम्हें कर्म ने दिया है लेकिन पर है जैसे मां-बाप, मां-बाप की वसीयत, भाई बन्धु, इन संबंधों को भी मैं मरने के पहले छोडूंगा। विवाह लेकर के आए थे रामचंद्र सीता को, दूसरे दिन दशरथ ने घोषणा कर दी, राजा राम का राज्याभिषेक होना चाहिए। दशरथ का नियम था बेटा योग्य होते ही मैं राजपाट छोड़ दूंगा। ऐसे ही हर जैनी गृहस्थ का संकल्प होना चाहिए, जैसे ही मेरा व्यापार संभालने का वारिस होगा, वैसे ही त्याग कर लूंगा, उसको आकिंचन्य धर्म में प्रवेश मिल रहा है। अब हम साधुओं के लिए जिस दिन यह शरीर छूटेगा, उस दिन में विषाद नहीं करूंगा, ये है हम साधुओं का आकिंचन्य धर्म। खुशी खुशी हंसते-हंसते में इस शरीर को विदा कर दूंगा और मैं अलविदा हो जाऊंगा। मैं यह मुनिव्रत धारण कर रहा हूं, कर्मों के नाश करने के लिए, दीक्षा के पहले दिन से ही भावलिंगी का आकिंचन्य धर्म आ जाता है।
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