उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म का तात्पर्य है संयम और आत्म-नियंत्रण के उच्चतम स्तर को प्राप्त करना। यह न केवल शारीरिक संयम को दर्शाता है, बल्कि मानसिक और भावनात्मक संयम को भी शामिल करता है। जैन धर्म में इसे धर्म के सर्वोच्च आदर्श के रूप में देखा जाता है क्योंकि यह आत्मा की शुद्धता और आध्यात्मिक उन्नति की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। पढ़िए मुनि श्री पूज्य सागर महाराज का विशेष आलेख…
दसलक्षण धर्म का अंतिम परंतु सबसे प्रभावी लक्षण है उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म। शास्त्रों के अनुसार अतीन्द्रिय आनन्द जहां पर उद्भूत होता है, वह जीव की ब्रह्मचर्य की दशा मानी जाती है। आत्म की प्राप्ति होना उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म कहा गया है। गुरु की आज्ञा में रहना और उनके मार्गदर्शन पर चलना भी ब्रह्मचर्य धर्म है। सादगी पूर्ण जीवन जीना, राग भाव का न होना और इन्द्रियों से नाता तोड़कर अपने आप को ध्यान के लिए तैयार कर लेना वास्तव में ब्रह्मचर्य धर्म है। ब्रह्मचर्य धर्म का पालन करने से शक्ति का संचार होता है, स्मरण शक्ति बढ़ती है और चेहरे पर चमक आती है। पश्चिम सभ्यता को अपनाने वाला कभी भी ब्रह्मचर्य धर्म का पालन नहीं कर सकता है। ब्रह्मचर्य को बहुत सरल शब्दों में समझना चाहें तो यह कह सकते हैं कि जो परिवार और समाज के संस्कार और संस्कृति को अपना लेगा, वही ब्रह्मचर्य धर्म का निर्वाह कर सकता है। देव गति में देवो के लिए तो स्पष्ट वर्णन आया है कि स्पर्श, रूप, शब्द और मन से मैथुन हो जाता है। मनुष्य में हम देखते हैं किस प्रकार से पश्चिम संस्कृति के कारण हमारे आप-पास का वातावरण खराब होने के कारण मन, वचन और काय से विकार भाव हो जाते हैं, वासना का भाव जाग जाता है। ब्रह्मचर्य धर्म के निर्वाह के लिए इन्द्रियों पर नियंत्रण रखने के साथ ही भारतीय संस्कार और संस्कृति ग्रहण करने का भाव पैदा करना होगा। तभी हम ब्रह्मचर्य को जीवन में आत्मसात कर पाएंगे।
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